गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

नाशवंत पदार्थों के लिए क्या हाय-हाय ?


तत्वज्ञानी महापुरुषों ने संसार के सभी पदार्थों का विचार कर आत्मा के स्वभाव को प्रकट करने के लिए प्रयत्नशील बनने का उपदेश दिया है, क्योंकि आत्मा के शुद्ध स्वरूप के प्रकटीकरण के बाद शाश्वत काल वह शुद्ध ही रहता है, उसमें परिवर्तन नहीं आता है। दुनियावी पदार्थ नाशवंत हैं, कितनी ही मेहनत व कितने ही पाप करके दुनियावी पदार्थ प्राप्त किए हों, फिर भी वे पदार्थ टिकने वाले नहीं हैं। कई लोग तो उन्हें प्राप्त करने के बाद इस जीवन में ही खो देते हैं। प्राप्त सुख चला जाए, यह किसी को पसन्द नहीं है, फिर भी पदार्थों का वियोग निश्चित है, तो फिर उन पदार्थों में संयोग का सुख पाने के लिए प्रयत्न करना कौनसी बुद्धिमत्ता है?

प्राप्त सुख का साधन स्थाई हो तो प्राप्त सुख स्थाई रह सकता है। वह सुख आत्मा के सिवाय किसी में नहीं है। अतः अपनी आत्मा को ऐसी शुद्ध बना दें कि अनंतकाल के बाद भी शुद्धस्वरूप में परिवर्तन होने न पाए। जब तक आत्मा पुण्य-पाप से लिप्त है, तब तक आत्मा शाश्वत सुख प्राप्त नहीं कर सकती है। पुण्य-पाप से रहित बनने पर ही आत्मा शाश्वत सुख में स्थिर हो सकती है। उस स्थिति को पाने का वास्तविक उपाय ही जैन धर्म है। आत्मा को पाप व पुण्य से रहित बनाने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की आराधना बताई गई है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूपी रत्नत्रयी ही मोक्षमार्ग है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 27 फ़रवरी 2013

पशुओं से अधिक हिंसक है स्वार्थी मनुष्य


आत्मा, पुण्य, पाप आदि का जिसे खयाल नहीं और जो संसार-सुख का तीव्र पिपासु है, ऐसा मनुष्य, जगत के लिए श्रापरूप न बने तो एक आश्चर्य ही होगा। विषय-कषाय में आनंद और अर्थ-काम के योग में सुख मानने वाले मनुष्य हिंसक पशुओं से भी ज्यादा खतरनाक हैं। स्वार्थी मनुष्य जितना उपद्रव मचाता है, उतना उपद्रव पशु भी नहीं मचाते हैं। संसार में आसक्त मनुष्य में दुनियावी पदार्थ पाने व उन पदार्थों के संग्रह-संरक्षण की जो भूख होती है, वैसी भूख और संग्रहवृत्ति पशुओं में भी नहीं होती है। मनुष्य योजनापूर्वक जो अमर्यादित हिंसा करता है, उतनी हिंसा पशु भी नहीं करता है। मनुष्य योजनापूर्वक पाप करता है और उन पापों को छिपाता है। कई ऐसे ठग होते हैं जो सरकार से भी पकडे नहीं जाते हैं और कदाचित् पकडे जाएं तो वकीलों द्वारा अपना बचाव कर लेते हैं। आज मनुष्य मात्र के सभी पाप प्रकट हो जाएं तो कानून के हिसाब से ही कितने लोग जेल से बाहर रहने योग्य निकलेंगे? ऐसे मनुष्यों को मानव कहें या राक्षस, यही विचारणीय है। जगत में ऐसे मनुष्य ज्यों-ज्यों बढते हैं, त्यों-त्यों उपद्रव भी बढते हैं, यह स्वाभाविक है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

धर्म ही दूर कर सकता है मनुष्य का जहर


धर्म ही दूर कर सकता है मनुष्य का जहर

मनुष्य के हृदय में रहे जहर को दूर करने का काम धर्म करता है। जिसके हृदय में धर्म का प्रवेश होता है, उसके हृदय में से जहर दूर हो जाता है। आज मनुष्य के हृदय में इतना जहर उछल रहा है कि जिसके कारण संहार के साधन बढ रहे हैं। आज मानव, मानवता छोडकर राक्षस बनता जा रहा है। अपने स्वार्थ में बाधक बनने वाले का संहार किया जाता है, उसमें वीरता और सेवा मानी जाती है। आर्य देश में यह मनोवृत्ति नहीं होनी चाहिए, परन्तु आज वातावरण बिगड रहा है।

यह भव भोग के लिए नहीं, त्याग के लिए है। दुनियावी पदार्थों की ममता दूर हो और आत्म-सुख प्रकट करने की कामना उत्पन्न हो, तब मानव, दानव के बजाय देव बन सकता है। आपको क्या बनना है, इसका निर्णय आप ही कीजिए। अनंतज्ञानियों की आज्ञानुसार पाप-त्याग और धर्म-सेवन का मार्ग बताना हमारा काम है, परन्तु उसे आचरण में लाना तो आपके हाथ में है न?’ पाप से उपार्जित सभी वस्तुएं यहीं रहने वाली है और पाप साथ चलने वाला है, यदि ऐसा विश्वास हो तो पाप से बचने के लिए प्रयत्नशील बनो, स्वार्थी मनोवृत्ति का त्याग करो। स्वार्थ पाप कराता है, ‘पाप से दुःख और धर्म से सुख’, इस बात पर आपको विश्वास है, इसलिए सीधी बात करता हूं कि पाप छोडो और धर्म का सेवन करो, जिससे आपका दुःख चला जाए और सुख प्राप्त हो। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

स्वार्थी मनुष्य के हृदय में जहर होता है।


आज स्वार्थवृत्ति इतनी अधिक बढ गई है कि अपने सामान्य स्वार्थ के लिए भी व्यक्ति अन्य जीवों के प्राण ले लेता है। सांप ने नहीं काटा हो तब भी यह विषैला प्राणी है, कदाचित् काट लेगा’, इस भय से उसे मार दिया जाता है। आज स्वार्थी मनुष्य जितना हिंसक व क्रूर बन गया है, उतने हिंसक व क्रूर तो हिंसक व विषैले प्राणी भी नहीं हैं। सांप विषैला होने पर भी उस सांप से मदारी अपनी आजीविका चलाता है। सिंह, बाघ, चित्ता आदि हिंसक होने पर भी सर्कस वाले उनसे अपनी कमाई करते हैं। इस दृष्टि से वे विषैले और हिंसक प्राणी भी मनुष्य की कमाई कराने में सहायक बनते हैं, जबकि अति स्वार्थी मनुष्य किसी का सहायक नहीं बनता, बल्कि वह तो अनेकों का बुरा ही करता है।

सांप काट लेगा।इस भय से सांप को मारने वाला क्या कम विषैला है? सांप के तो दांत में जहर होता है, जबकि स्वार्थी मनुष्य के हृदय में जहर होता है। ज्ञानियों द्वारा निर्दिष्ट हिताहित का विवेक जिसमें नहीं है, ऐसा व्यक्ति अपना विरोध करने वालों को क्या-क्या नुकसान नहीं पहुंचाता है? उसके हृदय में तो इतना भयंकर जहर होता है कि वह अपने स्वार्थ के लिए सामने वाले का खून भी कर सकता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 24 फ़रवरी 2013

आत्महित-बाधक प्रवृत्तियों में रस न लें


पाप बिना दुःख नहीं और धर्म बिना सुख नहीं’, ऐसा बोलने वालों की दुनिया में कमी नहीं है, परन्तु इस बात को स्वीकार कर जीवन में आचरण में लाने वाले बहुत थोडे ही लोग हैं। उसमें भी धर्म और पाप के वास्तविक स्वरूप को समझने वाले बहुत कम हैं। दुनिया में अधिकांश लोग पाप से डरते नहीं हैं, पाप करने से पीछे नहीं हटते हैं, इतना होने पर भी वे अपने आपको पापी नहीं मानते हैं। हित-बुद्धि से कोई उन्हें पाप से बचने के लिए कहे तो भी सहन नहीं होता, ऐसी स्थिति में दुःख कहां से जाए और सुख कहां से आए?

जो लोग समझते हैं कि पौद्गलिक वासनाएं आत्महित के लिए विषतुल्य हैं, उन्हें आत्म-स्वभाव को प्रकट करने में सहायक प्रवृत्तियों में रस पैदा करना चाहिए और आत्महित में बाधक प्रवृत्तियों में से रस उड जाना चाहिए। इस प्रकार करने पर ही दुःख-मुक्ति और सुख-प्राप्ति हो सकती है। इसके बिना अनंतकाल से दुःख का अनुभव करते आए हैं और भविष्य में भी दुःख निश्चित है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

संसार विषतुल्य है


मदारी सांप से आजीविका चलाता है, किन्तु कितना सावधान रहता है। मदारी सांप का जहर निकाल देता है, फिर भी वह सांप नुकसान न पहुंचाए, इसलिए सावधान रहता है। जरूरत पडने पर व्यक्ति विषैली दवाई का उपयोग करता है, परन्तु वह जहर पेट में न चला जाए इसके लिए सावधान रहता है। इसी प्रकार संसार से भय लग जाना चाहिए, संसार के सुख भी दुःखरूप लगने चाहिए, क्योंकि संसार की पौद्गलिक वासनाएं आत्महित के लिए विषतुल्य हैं, यह खयाल सतत रहना चाहिए। संसार में रहते हुए भी कीचड-पानी में कमलवत निर्लिप्त रहें, संसार में दृष्टाभाव से रहें, संसार के जहर से बचकर रहें, राग-द्वेष-कषाय से बचकर रहें। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

जीवन का लक्ष्य तो सर्वविरति ही होना चाहिए


जीवन का लक्ष्य तो सर्वविरति ही होना चाहिए

आत्म-स्वभाव की प्राप्ति के लिए पाप मात्र से निवृत्त होकर संयम और तप का विशिष्ट सेवन अत्यावश्यक है, लेकिन गृहस्थ जीवन में ऐसा उत्तम जीवन जीना संभव नहीं है। इसलिए सर्वश्रेष्ठ उपाय तो संसार का त्याग कर दीक्षा स्वीकार करना तथा दीक्षा स्वीकार करने के बाद अनंतज्ञानी वीतराग परमात्मा की आज्ञानुसार निर्ग्रन्थ आचार में अपनी शक्ति का उपयोग करना है। जो आत्माएं इसी तरह संसार का सम्पूर्ण त्याग कर साधु-धर्म के पालन में असमर्थ हों, वे आत्माएं भी देशविरति (आंशिक विरक्ति) हिंसा आदि पापों का त्याग कर सकती हैं। गृहस्थ के लिए दूसरा कोई धर्म नहीं है। धर्म तो जो है, वही है; परन्तु गृहस्थ सर्वांग रूप से धर्म का पालन नहीं कर सकते हैं, अतः उन्हें देशविरति (आंशिक) पालन के लिए कहा गया है और उसी को गृहस्थ धर्म कहा है।

गृहस्थ धर्म का पालन करने वाले का भी ध्येय तो उच्चकोटि के धर्म का पालन करने का ही होना चाहिए। जितने अंश में धर्म का पालन न हो, उतने अंश में अपनी कमजोरी समझकर पश्चाताप करते हुए अपने सत्व गुण को विकसित करने का प्रयत्न लक्ष्य-प्राप्ति तक लगातार करते रहना चाहिए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013

संसार दुखःमय, दुखःफलक और दुःखपरम्परक है


ज्ञानियों ने संसार को दुखःमय, दुखःफलक और दुःखपरम्परक कहा है। जीवन के थोडे से भाग पर यथास्थिति रूप से विचार करके देखो। इसमें मन, वचन और काया से कितने-कितने पाप किए? इन पापों के फल का विचार करो और फल भोगते समय आत्मा समाधि के अभाव में जो पाप करता है, उसका खयाल करो, इस रीति से विचार करो तो भी समझ में आएगा कि संसार दुखःमय, दुखःफलक और दुःखपरम्परक है। ऐसे संसार को दृढ करने का ज्ञानियों ने कभी भी उपदेश दिया है क्या? नहीं ही। और संसार को जो ज्ञानियों ने दुखःमय, दुखःफलक और दुःखपरम्परक कहा है, उसी संसार के आप रसिक बनो, ऐसा उपदेश साधुगण देते हैं क्या? नहीं ही। सचमुच में सच्चे श्रावक भी ऐसी शिक्षा किसी को नहीं देंगे तो साधु तो देंगे ही कैसे? ऐसा होने पर भी आज कतिपय वेशधारीगण कैसा उपदेश दे रहे हैं, वह देखो? मानो त्याग और वैराग्य के वैरी हों, उस ढंग से वेशधारी आज व्यवहार कर रहे हैं।

श्री जैन शासन को पाया हुआ व्यक्ति तो त्याग और वैराग्य का वैरी हो ही नहीं सकता, फिर वो चाहे श्रावक हो या साधु हो। त्याग थोडा हो सकता है, यह संभव है; किन्तु त्याग के बिना जीवन जीना व्यर्थ है, यह मान्यता जैनियों में न हो, ऐसा कैसे संभव है? त्याग न दिखे, ऐसा हो सकता है, किन्तु त्याग की भावना भी न हो, ऐसा कैसे हो सकता है? और जिसमें त्याग की भावना न हो, वह जैन कैसे? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

परिणामों का विचार किया है?


संसार के ऐश्वर्य भोगने में सुख नाम मात्र का और परिणाम में दुःख का पार नहीं, इसीलिए ही तारकों ने केवल मोक्ष मार्ग का उपदेश दिया। ज्ञानीगण परिणामदर्शी थे। दुनिया में भी चतुर वे ही गिने जाते हैं जो कि परिणाम का विचार करते हैं। आप परिणाम का विचार करते हैं क्या? आप इस संसार में जो प्रवृत्ति कर रहे हैं, उसका क्या परिणाम आएगा, इसका खयाल करते हैं? शायद कोई भाग्यवान ही ऐसा खयाल करता होगा।

पाप प्रवृत्ति के परिणाम का आदमी को वास्तविक खयाल आ जाए तो वह कंपित हुए बिना नहीं रहेगा। परिणाम के खयाल वाला पापभीरू नहीं हो, ऐसा संभव नहीं। भीरुता की कोई प्रशंसा नहीं करता है। ज्ञानी भी भीरुता को निकालने और वीरता धारण करने का उपदेश देते हैं। तदुपरांत भी वे ही ज्ञानीगण फरमाते हैं कि पाप की भीरुता अवश्य ही सीखनी चाहिए। पाप भीरुता, यह सामान्य कोटि का सद्गुण नहीं है।

एक तरफ सत्वशील बनने का उपदेश, दूसरी तरफ पाप भीरू बनने का उपदेश, इन दोनों संबंधों का परस्पर विचार कर देखो। इनमें परस्पर विरूद्ध भाव नहीं है। पापभीरुता सच्ची सत्वशीलता को विकसित करने वाली वस्तु है। विचार तो करके देखो कि पाप किए बगैर जीवन बिताना कठिन है या जीवन को पापमय दशा में बिताना कठिन है? पाप करना सरल है या पाप से बचना सरल है? निष्पाप जीवन जीना हो तो इन्द्रियों के ऊपर नियंत्रण रखना पडता है। मन-वचन-काया के ऊपर संयम धारण करना पडता है और भूख, तृष्णा, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी आदि सहन करना पडता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

संसार छुडाए वही सच्चा धर्म


श्री जैन दर्शन अर्थात् कर्म का संबंध छोडने का मार्ग दिखाने वाला दर्शन। इस संसार चक्र से छुडाने वाला दर्शन वह जैन दर्शन। संसार के संबंधों को दृढ करे, वह सच्चा धर्म नहीं है। सच्चा धर्म तो वही है कि जिसने संसार के संबंध को नाम-शेष करने का मार्ग दिखाया हो। श्री जैन दर्शन की विवेकपूर्वक विचारणा करो। संसार के संबंध को तोडने की जिनकी इच्छा उत्पन्न नहीं होती हो, वह जैन नहीं। संसार के संबंध को छोडने का उपदेश नहीं दे, वह सच्चा उपदेशक नहीं और संसार के संबंध दृढ बनें, ऐसा उपदेश दे, वह जैन साधु नहीं, अपितु सिर्फ वेशधारी है। ये भगवान के शासन के नाम पर पेट भरने वाले और तिरने के नाम पर स्वयं डूबने वाले और दूसरों को डुबाने वाले हैं। श्री जैन दर्शन का साधु जो उपदेश देता है, वह संसार के संबंध को तोडने का उपदेश देता है। कारण कि इसके बिना कल्याण नहीं है। ऐसा अनंतज्ञानियों ने जोर देकर कहा है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

पुण्य-पाप ही साथ जाने वाले हैं


यह सत्य है कि जो जन्मे हैं उनका मरण निश्चित है। इच्छा या अनिच्छा से, मरे बिना चलता नहीं है। किन्तु, यह विचार करो कि मरता कौन है? आत्मा मरती नहीं है। आत्मा तो है और रहने वाली है। यहां से मरण के बाद सारा खेल समाप्त हो जाता होता तो ज्ञानियों ने धर्म का उपदेश न दिया होता। किन्तु, यहां से मरने के बाद खेल समाप्त नहीं होता है। यहां से मर कर जो आत्माएं मोक्ष में नहीं जाती है, उन समस्त आत्माओं के लिए यह नियम है कि यह शरीर छूटा और कृतकर्मानुसार निश्चित समय में नूतन शरीर का संबंध बन जाता है। मनुष्य मरता है, उसके साथ उसके पुण्य-पाप नहीं मरते हैं।

आप जानते हैं कि यह शरीर यहां रहेगा, किन्तु कार्मन और तेजस शरीर साथ में जाता है। मनुष्य यहां से मरता है, इसलिए पुण्य-पाप के योग से दूसरे स्थान पर निश्चित समय पर वह आत्मा नवीन शरीर धारण करता है। इससे यह स्पष्ट है कि पुण्य-पाप यह सभी आत्मा के साथ ही जाते हैं। इसीलिए बांधे हुए कर्म शान्ति पूर्वक भोगने के सिवाय या तप आदि से उन्हें खपाए बिना सुख के अर्थी को छुटकारा नहीं है। कर्म का संबंध छूटे नहीं, वहां तक मरण के पीछे जन्म निश्चित है। कर्म से छूटना और कर्म छूटने के योग से दुःख और जन्म से मुक्त होना ही सच्चे सुख का मार्ग है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 17 फ़रवरी 2013

संसार को बढाने की हायतौबा क्यों?


लोगों को मरते हुए या उनके शव के दाह संस्कार को तो आपने आपकी जिन्दगी में कई बार अवश्य देखा होगा। कभी आपको लगा कि एक दिन मेरे शरीर की भी यही हालत होनी है? किसी के अंतिम संस्कार के लिए, किसी को जलाने के लिए श्मशान गए हो, तब कभी आपको ऐसा लगा कि इस प्रकार से किसी दिन मेरे शरीर को भी स्नेहीगण, संबंधीगण, पडौसी आदि ले जाएंगे और मेरा खून ही मेरे शरीर को आग लगा देगा? धन-सम्पत्ति कुछ भी साथ नहीं लेजा सकोगे।

आपको यह निश्चित हो कि मेरा यह शरीर अमर रहने वाला है तो बोलो! किन्तु भयंकर से भयंकर पापात्माएं भी अंतिम कोटि के नास्तिक होने पर भी यह बात तो अंत में जानते हैं कि एक दिन ऐसा अवश्य आएगा कि जिस दिन इस शरीर को कोई संग्रह करने वाला नहीं है। या तो जला देंगे या तो दफनाकर छोड देंगे। मानो कि अशुभ के योग से जो कोई ऐसे स्थान में मरे हों तो जंगल मं पशु-पक्षी, चील-कौए उसका भक्षण करेंगे। समुद्र इत्यादि में फेंक देंगे, किन्तु शरीर के लिए ऐसा कुछ न कुछ होने वाला ही है, यह निश्चित बात है। तो फिर संसार में संसार को और बढाने की लालसा या हायतौबा क्यों, किसके लिए? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

मौत निश्चित है


जिनका जन्म हुआ, उनका मरना निश्चित है। मरण के बाद जन्म नियम से होता ही हो, ऐसा नहीं है। जो-जो मरते हैं, वे-वे जन्म लेते हैं, ऐसा एकान्त नियम नहीं है। किन्तु जो-जो जन्मते हैं, वे मरण प्राप्त किए बिना नहीं ही रहते, यह तो निश्चित ही है। अनंतकाल में अनंत आत्माओं ने मरण के बाद वापस जन्म नहीं लिया, ऐसा हुआ है। किन्तु अनंतकाल में एक भी आत्मा ऐसा नहीं जन्मा कि जो वापस मरा नहीं हो। मृत्यु के साथ जन्म यह एकान्त नियम नहीं है, किन्तु जन्म के साथ मुत्यु यह एकान्त सत्य है। यहां से मरकर श्री सिद्धगति को प्राप्त आत्माएं यानी मोक्ष में जाने वाली आत्माएं पुनः जन्म नहीं लेतीं। जो जन्म लेगा, उसकी मृत्यु निश्चित है।

आप मरोगे या नहीं? आज जिस शरीर का आप संस्कार करते हैं, बारम्बार साफ किया करते हैं, जिसके ऊपर अत्यंत मोह रखते हैं, वह एक दिन अग्नि में भस्मीभूत हो जाएगा, ऐसा आपको लगता है? शरीर यहां रहेगा और आपको अपने कर्मों के साथ किसी अन्यत्र स्थान पर जाना पडेगा, ऐसा लगता है? आपका सर्वाधिक प्रिय स्नेही आपके शरीर को मोटी-मोटी लकड़ियों पर सज्जित करेगा, आपके शरीर पर बडे-बडे लकडे रखेगा और उसके बाद उसमें आग लगा देगा, इतना ही नहीं आपका शरीर जल्दी से जल्दी भस्मीभूत हो इसके लिए वह आग में घी और डालेगा, राल फेंकेगा ताकि जल्दी से जल्दी आग पकडे और दाह-संस्कार फटाफट हो, ऐसा आपको लगता है? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

अहंकार और चापलूसी डुबोने वाले हैं


वर्तमान मौजशोख के साधन व भौतिकता की चकाचौंध में ही जो स्वर्ग व मोक्ष की कल्पना करता हो, उसे तो धर्मशास्त्र भी सिर्फ बोझारूप लगेंगे। भावी जीवन को सुधारने और आत्महित की चिंता के प्रति जो बेपरवाह हैं, उन्हें अपने स्वयं के दोष सुनने की इच्छा भी नहीं होती है, फलस्वरूप शिष्ट पुरुषों का समागम और तत्त्वचिंतन आदि गुणों का आगमन बन्द हो जाता है और जीवन में अहंकार आ जाता है। ऐसे लोगों को फिर चापलूसी ही अच्छी लगती है, जो स्वयं भी डूबता है और दूसरे को भी डुबो देता है। चापलूसी तीन घोर घृणित दुर्गुणों का मिश्रण है- असत्य, दासत्व और विश्वासघात। आज अधिकांश लोगों को चापलूसी ही पसंद है, उनमें अपनी कमियां या क्षतियां सुनने की ताकत नहीं रही है, इस कारण कोई खरी-खरी कहे तो बुरा लगता है; परन्तु जब आत्मज्ञान होगा, तब अपनी भूल बताने वाले उपकारी लगेंगे। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

संसार में रस लेने वाले हिये के अंधे


जिन्हें संसार ही चाहिए और मोक्ष नहीं ही चाहिए, वे सब हिये (हृदय) से अंधे हैं। भगवान राजपाट छोडकर साधु बने। साधु बनने का अर्थ है- सुखों को लात मारकर दुःखों को निमंत्रण देना। जिन सुखों को भगवान ने छोड दिया, उनके पीछे आप पड रहे हैं और इसमें आपको कुछ भी अनुचित नहीं लगता है तो आप भगवान के भक्त नहीं रह जाते हैं। मुझे यह शरीर छोडकर अन्यत्र जाना है’, इस बात को आज लगभग सभी भूल गए हैं। यहां से जाने के बाद मेरा क्या होगा?’ यह चिन्ता आज लगभग नष्ट हो गई है। मैं मरने वाला हूं, यह खयाल हर पल रहे तो जीवन में बहुत-सी समझदारी आ जाए। भावी जीवन को मोक्ष मार्ग का आधार बनाने के प्रयत्न शुरू हो जाएं। सिर्फ वर्तमान की क्रियाएं, पेट भरना, बाल-बच्चे पैदा करना और मौजमजा करना, ये क्रियाएं तो कौन नहीं करता है? तुच्छ प्राणी भी अपने रहने के लिए घर बना देते हैं, वर्तमान की इच्छापूर्ति करते हैं और विपत्ति में भागदौड भी करते हैं। मात्र वर्तमान का विचार तो क्षुद्र जंतुओं में भी होता है। भावी जीवन का विचार छोडकर जो सिर्फ वर्तमान के ही विचारों में डूबा रहता है, वह अपने कर्त्तव्य पालन से च्युत हुए बिना नहीं रहता है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

मर्यादा का दिवाला निकल रहा है


मर्यादा रहेगी वहां तक धर्म रहेगा। महापुरुष भी किसी की निश्रा में रहते थे, उनकी आज्ञानुसार चलते थे। आज चारों ओर मर्यादा का दिवाला निकलता जा रहा है। कोई किसी की सुनने या मानने को तैयार नहीं। पुत्र माता-पिता की बात नहीं मानते और विद्यार्थी शिक्षक का उपहास करते हैं। आज युवकों की क्या दशा है, यह तो अखबार पढनेवाले आप लोगों को मालूम ही है, ये युवक अपने बाप के भी बाप बन गए हैं। और प्रोफेसर के भी प्रोफेसर बन गए हैं। कॉलेजों के संस्थापक कॉलेजों को कैसे चलावें, इस चिंता में हैं और नए कॉलेज न खोलने के निर्णय पर आए हैं। दुनिया में पढे-लिखे गिने जानेवाले अपनी होंशियारी का उपयोग भी दुनिया को परेशान करने में और स्वयं का स्वार्थ साधने में कर रहे हैं।

आत्मा का ज्ञान हुए बिना, जितना अधिक पढा जाए उतना अधिक गंवारपन आता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण आज के कॉलेज हैं। आत्म-ज्ञान से रहित व्यक्तियों को ज्ञान देने का यह परिणाम है। आत्म-ज्ञान से, धर्म से जीवन में मर्यादा आती है और मर्यादा होने से घरों का संचालन भी ठीक तरह से होता है। मर्यादा से रहित घरों में हमेशा झगडे हुआ करते हैं। मिथ्याज्ञान पाकर आपके लडके आपके न रहें यह आप सहन कर सकते हैं, परन्तु सम्यग्ज्ञान से आपके लडके आपके न रहकर साधु बन जाएं तो यह आप सहन नहीं कर सकते। कैसी गजब की बात है? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

वृद्धाश्रम समाज के लिए शर्म की बात


आज आप लोगों के घरों में बुजुर्गों की स्थिति ऐसी हो गई है कि जो कमावे वह खावे और दूसरा मांगे तो मार खावे। ऐसी स्थिति हो जाने के कारण ही इस देश में वृद्धाश्रम या विधवाश्रम की बातें चलने लगी हैं। ऐसे आश्रम स्थापित हों, यह कोई गौरव की बात नहीं है; अपितु उन बुजुर्गों और विधवाओं के परिवारों के लिए तथा समाज और संस्कृति के लिए शर्म की बात है।

आपसे मेरा पहला प्रश्न यह है कि आपका राग आपके माता-पिता पर अधिक है या पत्नी-बच्चों पर अधिक है? भगवान पर राग होने का दावा करने वाले को मेरा यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। योग की भूमिका में माता-पिता की पूजा लिखी है, पत्नी-बच्चों की नहीं। मुझे तो ऐसा महसूस होता है कि आज के लोगों को कम से कम कीमत की कोई चीज लगती हो तो वह उसके मां-बाप हैं। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

जंगली जमाना


देश बरबाद हो रहा है। मनुष्य, मनुष्य नहीं रहा। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य जीवों को तो मानो जीने का अधिकार ही नहीं, ऐसी हवा फैलगई है। वर्तमान युग, हिंसक युग है। जिस युग को आप अच्छा मानते हैं, वह घोर घातकी युग है। लाखों जीव काटे जाते हैं; वह भी कानून का ठप्पा लगाकर। आप इस हिंसा को रोक भी नहीं सकते। यदि रोकने का प्रयत्न करो तो देशप्रेमीन गिनाओ। आज मनुष्य, मनुष्य से घबराकर चलता है। जानवर से तो थोडी दूरी पर रहे तो निर्भय, परन्तु मनुष्य तो पीछे पडजाता है। अतः उससे डरकर रहना पडता है। ऐसा यह युग है। कैसा विचित्र है यह युग!! इतनी अधिक अधोगति हो रही है, तथापि प्रगति हो रही हैऐसा बोलने वालों को लज्जा तक नहीं आती। यह अचरज की बात नहीं है? ऐसा जंगली जमाना तो कभी नहीं रहा होगा।

आजकल एकता की बातों के नाम पर ही एकता के टुकडे हो रहे हैं। धर्म के नाम पर जाति के नाम पर राजनीति हो रही है। भूतकाल में जो एकता थी, वह आज देखने को नहीं मिलती। अमेरिका का अनाज यहां आता है, परन्तु यहां के एक प्रांत का अनाज दूसरे प्रांत के काम नहीं आता। विदेशी भी अनाज देकर कोई उपकार नहीं करते! वे अपना कचरा यहां सरका देते हैं और यहां की अच्छी चीज वहां जाती है। कैसी विरोधाभासी और विनाशक नीतियां है और कहते हैं कि प्रगति हो रही है। यह कितने शर्म की बात है! आज देश का उद्धार नहीं, अधःपतन हो रहा है। शक्ति बढने के साथ आपके घरों में मौज-शौक के साधन तो बढते ही जाते हैं, परन्तु धर्म के साधन बढते हुए कहीं नजर नहीं आते हैं। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 10 फ़रवरी 2013

सुख-दुःख में शरणभूत धर्म ही है


सुख-दुःख में शरणभूत धर्म ही है

सुख और दुःख में एकमात्र धर्म ही शरणभूत है। इसलिए धर्म ही सर्वस्व है, धर्म ही भाई है, धर्म ही पिता है, धर्म ही माता है। भाई, पिता और माता आदि की गरज पूरी करने वाला धर्म ही है। अरे, संसार के भाई, माता, पिता आदि जो हमारी चिन्ता करते हैं, वह धर्म का ही प्रताप है। धर्म न रहे तो पिता, माता, भाई आदि में से कोई भी खबर लेने वाला नहीं रहेगा। धर्म पुण्य के रूप में उदित होगा तो ही सम्बंधी, सम्बंधी रहेंगे और मित्र मित्र रहेंगे। लडका अंतिम समय तक आपको पिता कहेगा, चिन्ता करेगा, यह धर्म का ही प्रताप है। ऐसे धर्म को दुनिया की सामग्री के लिए या सगे-सम्बंधियों के लिए छोडना क्या उचित है? दुनिया की कोई सामग्री या कोई सगा-सम्बंधी जिस समय काम में नहीं आता, उस समय धर्म काम में आता है। यह साता भी दे सकता है और असाता के समय हृदय को यह समाधि में भी रख सकता है। अतः अवलंबन तो केवल मात्र धर्म का ही चाहिए। धर्म की रुचि प्रकट हो और विवेक बढे तो समझ में आता है कि अपना धर्म ही हमें सब संग से छुडाकर असंगत्व का अनुपम सुख दिलाता है! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

तृष्णा का आतंक


मन की तृष्णा ने आज कितना भयानक आतंक फैलाया है? पिता-पुत्र, पति-पत्नी, बडा भाई, छोटा भाई, सास-बहू इन सब लोगों के बीच का व्यवहार देखो। जरा सोचो तो सही एक दूसरे के लिए कितनी ईर्ष्या, द्वेष-भावना दिल में भरी हुई है? मन की तृष्णा बढी है। पर-वस्तुओं को प्राप्त करने की व भोगने की लालसा बढी है और त्याग-भावना नष्टप्रायः हो गई है। इसके परिणामस्वरूप आज के संसार में भयानक भगदड और भागदौड मच रही है। लोग भौतिकता की चकाचौंध में अंधे हो गए हैं। जब तक मन की भयानक भूख नहीं मिटेगी और त्याग की भावना पैदा नहीं होगी, तब तक ऐसी भगदड और भागदौड मची रहेगी, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। इस तरह विचार किया जाए तो अवश्य समझ में आएगा कि मन की भौतिक भूख ही सारे विनाश का कारण है। संसार के प्रति अरुचि न हो तो, धर्म किस काम का? अधिक प्राप्त करने के लिए धर्म किया जाता हो तो वह धर्म, धर्म रहता ही नहीं, धंधा हो जाता है, बिना पैसे के धंधे जैसा। आज आपको साधुओं की आवश्यकता क्यों है? बहराने के लिए? इनके पगल्ये हों तो घर में लक्ष्मी के पगल्ये हो जाएं इसलिए? या धर्म करने हेतु शास्त्र की विधि का ज्ञान आवश्यक है इसलिए? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा