शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

साधुता को पाने की भावना होनी चाहिए


सम्यक्त्व पाने के मनोरथ में साधुता पाने का मनोरथ भी आ जाता है, वीतरागता का मनोरथ भी आ जाता है और मोक्ष पाने का मनोरथ भी आ जाता है। इसलिए यह निश्चय करिए कि धर्म की कोई भी क्रिया हम इसलिए करते हैं कि सबसे पहले हमें सम्यक्त्व मिले! धर्म के परिणाम स्वरूप हमें यह चाहिए, वह चाहिए’, यह भूल जाइए! पहले तो एक मात्र सम्यक्त्व ही चाहिए, ऐसा कहिए।

आजकल तो मंदिर में पूजादि हो और आमंत्रण आया हो तो पूजा में जाते हैं परन्तु कहते क्या हैं? ‘अमुक का आमंत्रण आया है, इसलिए पूजा में जाता हूं।इसमें क्या लाभ है? चक्कर भी होता है और फल भी नहीं मिलता। इस प्रकार धर्मक्रिया का फल न मिले या विपरीत फल मिले, इस रीति से कितनी ही धर्मक्रियाएं हो रही हैं। समझदार व्यक्ति ऐसी भूल कर सकता है? धर्मक्रिया करे और धर्म का फल जाए, इस तरह कोई विवेकी व्यक्ति धर्म कर सकता है? अतः धर्म के फल के रूप में किसी तरह की सांसारिक अभिलाषा नहीं रखनी चाहिए। धर्म प्राप्त करना है, इसलिए धर्म करता हूं’, ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए! हमें दूसरे लोग अच्छा कहें, समझदार कहें’, यह सुनने की वृत्ति छोड दो।

सम्पूर्ण धर्म तो साधुपन में ही है। ऊंचा से ऊंचा धर्म भी साधु का ही है। सर्वविरतिधर धर्मी और देशविरतिधर धर्माधर्मी। पूर्ण धर्मी तो साधुता के बिना नहीं बना जा सकता। आपको भी पूर्ण धर्मी बनना है। परन्तु प्रारंभ में तो यह कहना चाहिए कि पहले सम्यक्त्व पाना है। इससे विघ्न भी कम आएंगे। आज कोई पूछे कि मंदिर क्यों जाते हो? साधु के पास क्यों जाते हो?’ और यदि आप ऐसा कहेंगे कि मन में ऐसी भावना है कि देव के पास जाते-जाते और गुरु के पास जाते-जाते संसार का संयोग छूट जाए और साधुपन प्राप्त हो जाए तो अच्छा।तो सगे-सम्बंधी कदाचित् आपको रोकने का प्रयत्न करेंगे। देव-गुरु के पास जाने में भी विघ्न करेंगे। धर्म करते समय मन में भावना यह रखनी चाहिए कि शक्ति आ जाए तो साधुपन लिए बिना नहीं रहना है’, परन्तु अभी कहना यह चाहिए कि सम्यक्त्व पाना है! सम्यक्त्व को निर्मल बनाना है।ऐसा बोलने से एकदम विघ्न नहीं आएगा।

वैसे, सम्यक्त्व पाने की सच्ची भावना में साधुपन को पाने की भावना अंतर्निहित होती है। संसार के संग को छोडने की भावना के बिना, संसार का संग त्याज्य ही है, ऐसा लगे बिना, सम्यक्त्व आता ही नहीं। इस भावना से विपरीत भावना आने से सम्यक्त्व टिक नहीं सकता।

इसलिए ऐसा कहिए कि अब तो प्रथम पुरुषार्थ अथवा कोई भी पुरुषार्थ सम्यक्त्व को पाने के लिए ही करना है। इसके लिए ही शास्त्र-श्रवण करना है और तत्त्व-स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

संसार छोडने योग्य लगता है?


इस जीवन में कदाचित् हमें अन्य कुछ न मिले, परन्तु सम्यक्त्व तो हमें अवश्य प्राप्त करना चाहिए।क्योंकि, सम्यक्त्व उन सब साधनों का मूल है, जो आत्मकल्याण के लिए आवश्यक हैं। सम्यक्त्व के बिना आत्मा का सच्चा कल्याण नहीं हो सकता। और सम्यक्त्व के आने पर आत्मा का सच्चा और पूरा कल्याण हुए बिना भी नहीं रहता, ऐसा निश्चय हो जाता है।

विचार करिए कि जीव को जब तक संसार अच्छा लगता है, संसार के सुख में ही सच्चा सुख मालूम होता है, वहां तक वह सम्यक्त्व पा सकता है? नहीं। अतः किसी भी तरह संसार खराब लगे, हानिकर्ता लगे, छोडने योग्य लगे, ऐसा करना चाहिए न? तो अब चाहे जैसे भी ऐसा जानना है, चिंतन करना है, ऐसी संगति में रहना है, ऐसे की सेवा करना है कि जिससे संसार छोडने योग्य ही है, ऐसी प्रतीति हो।

कोई पूछे कि मंदिर में प्रतिदिन क्यों जाते हो?’ तो कहना चाहिए कि सम्यक्त्व पाने के लिए।’ ‘पूजा में इतने घंटे क्यों लगाते हो?’ तो कहना चाहिए कि सम्यक्त्व पाना है, इसलिए।’ ‘साधु के पास बार-बार क्यों जाते हो?’ तो कहना चाहिए कि सम्यक्त्व पाने के लिए।आप जो कोई भी धर्मक्रिया करें, उस विषय में कोई पूछे कि यह क्यों करते हो, तो कहना चाहिए कि यह सब मैं इसलिए करता हूं कि मुझे सबसे पहले सम्यक्त्व प्राप्त करना है।ऐसा आप अपने मन में निश्चित कर लें और जब-जब जो कोई पूछे तो उसे ऐसा ही उत्तर देना शुरु करें, तो कदाचित संसार के रसिया कहेंगे कि यह पागल हो गया है।परन्तु ऐसे लोग जब आपको पागलकहें, तब आपको प्रसन्न होना चाहिए। जब लोग पागलकहने लगें, तब समझना चाहिए कि धर्म आने लगा है।

संसार में रहना पडे या संसार के काम करने पडें तो भी उन्हें रस से नहीं करना और संसार को बढाने वाले कामों में यथासंभव भाग नहीं लेना। आप संसार के कामों में रस नहीं बताएंगे और यथासंभव आप संसार के काम में भाग नहीं लेंगे, तो आपके स्नेही-सम्बंधी आपको पागलकहेंगे। परन्तु, जब वे आपको पागलकहें, तब आप समझना कि अब मुझ में धर्म आने लगा है।सम्यक्त्व के सन्मुख होने की अवस्था आने पर संसार का राग मंद पड जाता है, ग्रंथिभेद होने और सम्यक्त्व प्रकट होने से जीव का विराग बढता है और संसार का राग एवं संग त्याज्य है’, ऐसी प्रतीति होने लगती है। इसके बाद अविरति मंद पडती है और वैराग्य जोरदार बनता है। अतः चारित्र मोहनीय टूटने लगता है, विरति आने लगती है। उससे संसार का राग चला जाता है, संसार का संग भी छूट जाता है। इस तरह विरति की प्राप्ति होती है। फलस्वरूप वीतरागता, केवलज्ञान और मुक्ति मिलती है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 28 नवंबर 2012

राग-द्वेष से मुक्त हों


जीव धर्म-प्राप्ति के योग्य बने वहां तक शुद्ध यथाप्रवृत्तिकरण गिना जाता है। धर्म प्राप्त करने की इच्छा हुई, तब तक तो उसने बहुत-बहुत निर्जरा कर ली होती है। परन्तु धर्म पाने के लिए सबसे पहले ग्रंथिभेद करना पडता है। गाढ राग-द्वेष की ग्रंथि को भेदना पडता है। अपूर्वकरण के बिना ग्रंथिभेद नहीं होता। इस अपूर्वकरण को पैदा करने के लिए जीव को सांसारिक सुख के राग पर और इस राग से उत्पन्न दुःख पर खूब द्वेष करना पडता है। संसार-सुख के राग पर और इस राग से उत्पन्न दुःख पर कैसा द्वेष करना पडता है?

अब तक यह जीव संसार के सुख के राग पर और संसार के दुःख के द्वेष पर आधारित रहा है। इस राग में और इस द्वेष में ही मेरा कल्याण है’, ऐसा इस जीव ने माना हुआ है। परन्तु अब उसे समझ में आता है कि यह राग और यह द्वेष ही सचमुच मेरे दुश्मन हैं। इस राग और द्वेष ने ही मुझे अपने स्वरूप का भान नहीं होने दिया। अनादिकाल से अब तक के अनंतानंत पुद्गल परावर्तकाल तक मुझे इस राग और द्वेष ने ही संसार में भटकाया है। इस राग और द्वेष से मैं छूटूं, तो ही मेरी मुक्ति है।

अतः अब किसी भी तरह से मुझे न यह राग चाहिए और न द्वेष ही चाहिए। इस भयंकर संसार से छूटने का उपाय यही है कि इस राग से और द्वेष से मैं सर्वथा मुक्त बनूं’, ऐसा निर्णय किया जाए। यह निर्णय क्या है? संसार के सुख के राग पर और उससे उत्पन्न द्वेष पर द्वेष करना है। इस राग और द्वेष पर इस प्रकार के द्वेष के चितनादि में से आत्मा में इस राग-द्वेष को तोड डालने का अपूर्व परिणाम प्रकट होता है, इसे अपूर्वकरण कहते हैं। इस अपूर्वकरण से गाढ राग-द्वेष की गांठ भी छिन्न-भिन्न हुए बिना नहीं रहती। आपको ऐसा अनुभव होता है न कि संसार के सुख के प्रति राग ने और इस राग से उत्पन्न दुःख के प्रति द्वेष ने आत्मा का बहुत-बहुत नुकसान किया है? ये राग-द्वेष बुरे लगें तो अपूर्वकरण सरलता से प्रकट हो सकता है।

इस अपूर्वकरण को महात्माओं ने मुद्गर जैसा भी कहा है। सम्यक्त्व के द्वार में प्रवेश करने के लिए पाप-पडल दूर होने चाहिए और पाप के पडल दूर हों तब यह जीव अपूर्वकरणरूपी मुद्गर को हाथ में ले सकता है न? इसके बाद ही ग्रंथि का भेद होता है। अनंतानुबंधी कषाय की अर्गला और मिथ्यात्व की सांकल इसके बाद भिन्न हो जाते हैं। तब भगवान का दर्शन, पूजन आदि इसके लिए करना है। यह सम्यक्त्व की क्रिया है। यह क्रिया सम्यक्त्व दिलाने वाली है और इस क्रिया में यह गुण है कि यह सम्यक्त्व को निर्मल भी बनाती है। जीव में यह भाव होना चाहिए। अथवा उसमें इस भाव से विपरीत भाव का आलम्बन नहीं होना चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

मंदिर-उपाश्रय या तीर्थ में किस भावना से जाएं?


श्रावक प्रातःकाल उठकर क्या-क्या करे? देव को याद करे, देवादि को नमस्कार करे। बाद में धर्म, कुल और स्वीकृत व्रतादि को याद करे, भावना भाए। प्रतिक्रमणादि करता हो तो करे। फिर अपने गृहमंदिर में पूजा करे। शक्ति सम्पन्न श्रावक गृहमंदिर तो रखता है न? इसके बाद श्रावक संघ के मंदिर में जाए। वहां से गुरु के पास जाए। घर तो बाद में जाता है न? गुरु उसे क्या कहते हैं? देव और गुरु के पास वह क्यों जाता है? संसार के राग से और संसार के संग से छूटने के लिए न? श्रावक के मन में क्या होता है? ‘इन देव और गुरु की उपासना करते-करते संसार के राग से और संसार के संग से कब छूटूं’, ऐसा उसका मन होता है न? श्रावक तीर्थयात्रा पर किस भावना से जाता है? वहां जाने से संसार के राग और संग से जल्दी छुटकारा हो सकता है, ऐसा उसका विचार होता है न? एक स्थान पर जाने से असर नहीं हुआ, दूसरे स्थान पर असर न हुआ तो उसे विचार होता है कि सिद्धगिरिजी जाऊं! वहां का प्रभाव जोरदार माना जाता है। ऐसे विचार के साथ जो देव के पास जाता है, गुरु के पास जाता है, तीर्थयात्रा पर जाता है, उसका संसार के प्रति राग कम न हो, ऐसा हो सकता है क्या?

धर्म जानने के लिए जीव साधु के पास जाए और साधु कहे कि संसार असार हैतो वह इसे मानेगा न? संसार के सुख पर से जिसकी दृष्टि ऊपर उठी हो और इसलिए जिसे धर्म जानने का मन हुआ हो, ऐसा जीव साधु के द्वारा कही हुई संसार की असारता को मानेगा न? साधु भी उसे जिनेश्वर कथित धर्म ही बताएगा न? अतः पहले अरिहंत पर श्रद्धाभाव पैदा हो, ऐसा कहेगा न? ऐसा कहकर जब साधु जिनेश्वर देव कथित धर्म को बताने लगे तो उसमें भी सर्वप्रथम क्या बताए? सर्वविरति ही बताएगा न? अधर्म से सर्वथा छूटना हो और एकांत धर्ममय आचरण करना हो तो सर्वविरति चाहिए ही। अतः प्रथम सर्वविरति का उपदेश करे।

जो सामर्थ्य वाले हैं, वे तो सर्वविरति धर्म को स्वीकार करने हेतु तत्पर बन जाते हैं। परन्तु, ऐसा सामर्थ्य जिनमें न हो, वे जीव कहें कि भगवन! सचमुच धर्म तो यही है। यही धर्म संसार से शीघ्र मुक्त कर देने वाला है। परन्तु, इस धर्म को पालने का सामर्थ्य मुझमें अभी फिलहाल प्रकट नहीं हुआ। अतः ऐसा धर्म बताने की कृपा करें, जिसको करते-करते मुझमें सर्वविरति धर्म को पालने का सामर्थ्य प्रकट हो सके।ऐसे जीव के समक्ष साधु देशविरति धर्म का प्रतिपादन करे। परन्तु, यदि कोई जीव देशविरति धर्म को स्वीकार करने की सामर्थ्य वाला भी न हो तो उस जीव को साधु सम्यक्त्व के आचार आदि बताए। जिनकी योग्यता इतनी भी विकसित नहीं होती है, उन्हें साधु मार्गानुसारिता के गुण बताए। मार्गानुसारिता के आचार भी ऐसे हैं कि जिनका पालन करते-करते जीव धर्म प्राप्ति के योग्य बनता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 26 नवंबर 2012

जैन कुल की प्रत्येक बात में वैराग्य होता है


जैन कुल में जो जन्मा हो और जिसमें जैन कुल के संस्कार हों, उसमें वैराग्य न हो, ऐसा नहीं हो सकता। जैन कुल में तो माता स्तनपान के साथ ही वैराग्य का पान कराती है, ऐसा कहा जा सकता है। क्योंकि, जैनकुल की प्रत्येक बात में प्रायः वैराग्य का प्रभाव होता है। खाने की बात हो या पीने की बात हो, लाभ की बात हो या हानि की बात हो, भोगोपभोग की बात हो या त्याग-तप की बात हो, जन्म की बात हो या मरण की बात हो, जैन कुल में होने वाली प्रायः प्रत्येक बात में वैराग्य के छींटे तो होते ही हैं।

जैन जो बोलते हैं, उससे समझदार व्यक्ति समझ सकता है कि वैराग्य का प्रभाव है। आज यह अनुभव विरल होता जा रहा है, यह दुर्भाग्य है। अन्यथा पुण्य, पाप, संसार की दुःखमयता, जीवन की क्षणभंगुरता, वस्तुओं की नश्वरता, आत्मा की गति, मोक्ष आदि की बातों का प्रभाव प्रायः जैन की प्रत्येक बात में होता है। क्योंकि उसके हृदय में यही (वैराग्य) होता है। अच्छा या बुरा जो कुछ भी होता है, उसके विषय में अथवा कुछ नया करने का अवसर आए, उस समय जो बात होती है, उसमें सच्चे जैन जो बात करने वाले होते हैं, तो वैराग्य के छींटे उसमें न हों, यह नहीं हो सकता। संसार का सुख मिलने की स्थिति में, ‘संसार के सुख में और संसार के सुख की सामग्री में बहुत आसक्त नहीं होना चाहिए’, ऐसी बात होती है। जब संसार का सुख चला जाता है और शोक की स्थिति होती है, तब शोक की अपेक्षा उसकी नश्वरता आदि की बात होती है। यह वैराग्य के घर की बात है न?

वैराग्य, मिथ्यात्व के क्षयोपशमादि से होने वाला कार्य है और विरति, चारित्र मोहनीय के क्षयोपशमादि से होने वाला कार्य है। विराग, मिथ्यात्व की मंदता के योग से पैदा होता है। अर्थात् प्रथम गुण स्थानवर्ती मंद मिथ्यादृष्टियों में भी विराग हो सकता है। सम्यग्दृष्टि में विराग अवश्य होता है, परन्तु सम्यग्दर्शन को पाए हुओं में विराग नहीं होता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। मोक्ष का भाव भी सम्यग्दर्शन प्रकट होने के पहले मिथ्यात्व की मंदता में आ सकता है।

आजकल, उच्च समझे जानेवाले कुलों में भी कैसी स्थिति पैदा होती जा रही है? लडका धर्म करता है, या धर्म करने के लिए तैयार होता है तो पिता उसमें बाधा बनता है, परन्तु लडका धन और भोग के लिए चाहे जो उल्टे-सीधे काम करे, तो भी उसका पिता अन्याय-अनीति करते हुए बेटे को नहीं रोकता है। पहले अच्छे कुटुम्बों में यह स्थिति थी कि धर्म करने का मन होना, कोई सरल बात नहीं है’, ऐसा वे जानते थे। इसलिए लडके को धर्म करने का मन होने की बात जानकर उन्हें प्रसन्नता होती थी और लडका धन-भोग के विषय में अन्याय-अनीति के मार्ग पर न चला जाए, इसकी सावधानी रखते थे।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 25 नवंबर 2012

अच्छे माता-पिता कब उपालंभ देते हैं?


आप कदाचित सुखी घर में जन्मे होंगे, परन्तु बचपन में आपके माता-पिता ने आपको पीटा है या नहीं? थोडा-बहुत गिराने पर या तोडने-फोडने पर मार पडी होगी न? संस्कार बचपन से ही कैसे मिले हैं? सुखी मनुष्य सांसारिक चीज का नुकसान सहन न होने से मारता है और खराब मार्ग में जाने से रोकने के लिए पीटता है, इन दोनों में भेद है या नहीं है? सुखी मनुष्य सज्जन हो तो सांसारिक चीज को महत्त्व नहीं देता है। स्नेह और सम्बंध के सामने उस नुकसान की कोई कीमत नहीं। वह कहता है कि ऐसी भूल तो होती रहती है। परन्तु स्नेही-सम्बंधियों में कोई खराब काम हो जाए तो उसके लिए उपालम्भ दिए बिना वह नहीं रहता।

प्रामाणिकता से धंधा करते हुए बाजार की उथल-पुथल से पुत्र लाख रुपये खो आता है तो वह मुंह नहीं बिगाडता और पुण्य-पाप की बात करके आश्वासन देता है। जबकि वही पिता लडके द्वारा अनीति से पांच लाख कमाकर आने की स्थिति में मुंह बिगाडता है और अनीति से धनवान बनने की अपेक्षा नीति से जो मिले उसी में जीवन चला लेना अच्छा है, ऐसा समझता है। अनीति से पांच लाख लेकर आए तो भी उपालम्भ देना और नीति से व्यवहार करते हुए लाख खोकर आए तो भी उपालम्भ न देना, यह बात आपको रुचती है?

आर्यदेश के सामान्य संस्कार ऐसे होते हैं कि अच्छे कुटुम्बों में सांसारिक कार्य बडों को पूछे बिना नहीं होते। परन्तु, किसी प्रसंग पर अच्छा काम बडों को पूछे बिना भी किया जाता है। ऐसे भी पिता होते हैं कि किसी अच्छे काम में पूछे बिना लडका लाख रुपया दे आया हो तो कहते हैं कि मेरा लडका है न? ऐसे काम में तो वह देकर आएगा ही।इस प्रकार धर्मी मां-बाप का लडका समझता है कि धर्म करने का मन हो जाए और माता-पिता को पूछने का अवसर न हो, तो बिना पूछे भी धर्म करने में कोई आपत्ति नहीं है। उसे विश्वास होता है कि मेरे माता-पिता धर्म के काम में बाधा देने वाले नहीं हैं। अवसर हो तो वे पुत्र-पुत्री वयस्क होने पर विनय धर्म का लोप न करें और माता-पिता की अनुमति अच्छे काम में भी ले लें। परन्तु, ऐसा अवसर न हो और धर्म करने का मन हो जाए तो वह धर्म करने से रुक जाए, ऐसा नहीं होता। इसलिए उत्तम कुल-जाति आदि के महत्त्व को शास्त्र ने मान्य रखा है। ऐसा होते हुए भी अकुलीन कुल में कोई जीव पाप के उदय से आ गया हो, परन्तु पूर्व में धर्म करके आया हो और उसके पूर्व भव के संस्कार जागृत हो जाएं तो वह धर्म पा सकता है। बात यह है कि हम कुल, जाति आदि के असर को नहीं मानते हैं, ऐसा नहीं। परन्तु, इस काल में, उत्तम गिने जाने वाले जाति, कुल में पहले जो उत्तम प्रभाव था, वह बहुत क्षीण हो चुका है। क्योंकि, आचार-विचार और संस्कार में बडा अंतर आ गया है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 24 नवंबर 2012

सद्गुरु क्या कहते हैं?


धर्म को जानने के लिए आए हुए जीव को सद्गुरु क्या उपदेश दें? धर्म सुनने के लिए आए हुए व्यक्ति का सांसारिक सुख का रस निकल जाए, ऐसा ही सद्गुरु कहते हैं न? धर्म को साररूप बताने के लिए सबसे पहले सुखमय संसार को भी असार ही बताते हैं न? उस समय संसार के सुख पर से जिसकी दृष्टि उठ गई है, वह जीव क्या कहेगा? वह कहेगा कि मुझे ऐसा ही महसूस हुआ है, अतः मैं धर्म सुनने के लिए आया हूं। मोक्ष पाए बिना सच्चा और पूर्ण शाश्वत सुख नहीं मिल सकता’, ऐसा भी सद्गुरु उसे कहेंगे न? और मोक्ष को पाने का उपाय धर्म है और वह धर्म भगवान श्री जिनेश्वर देवों ने कहा है, धर्म का पूरा-पूरा आचरण करना हो तो संसार का संग छोडना चाहिए’, ऐसा भी सद्गुरु कहेंगे न? उस समय असंख्य गुण निर्जरा करने वाले जीव को क्या विचार आता है? सद्गुरु जो कहते हैं, वह सत्य है, यही न? वह स्वयं भले ही संसार में बैठा हो, संसार में बैठ कर दुनियादारी का व्यवहार भी करता हो, परन्तु उसे ऐसा विचार तो होता है कि संसार के संग को छोडे बिना एकांत धर्म का सेवन हो ही नहीं सकता’, ऐसी मनोदशा प्रकट होती है और उसमें अपूर्वकरण को प्रकट होने में देर नहीं लगती।

यह सब बात हम क्यों कर रहे हैं? आत्मा में ऐसा परिणाम न आया हो तो सुनते-सुनते और विचारते-विचारते भी ऐसा परिणाम प्रकट हो जाए, इसलिए न? अथवा, मोक्ष के उपायभूत धर्म को जीवन में जीने का उल्लास प्रकटे-इसलिए न? अतः प्रत्येक को यह देखना चाहिए कि यह सुनते हुए उसके दिल पर क्या असर होता है? संसार में दुःख कितना और सुख कितना? संसार में जो थोडा-बहुत सुख है, वह भी दुःख मिश्रित ही है। संसार में दुःख का तो कोई पार ही नहीं है।

आपने इस भव में भी बहुत-से दुःखों का अनुभव किया है, ऐसा आपको प्रतीत होता है? माता के गर्भ में तो दुःख भोगा, परन्तु जन्म के बाद दुःख नहीं देखा और सुख ही भोगते-भोगते इतने बडे हुए, ऐसा आप कह सकते हैं? जन्में तब से आप एक सरीखे सुख में ही रहे हैं, ऐसा कह सकते हैं क्या? प्रायः बचपन से ही आप दुःख का अनुभव करते आए हैं। रोगादिक की बात को अलग रख दें तो भी आज आपको कम दुःख नहीं हैं। कई दुःख ऐसे हैं जो शब्दों में व्यक्त नहीं किए जाते और कई दुःख हैं जो मोह के नशे में दुःखरूप नहीं लगते हैं। दुःख न सहे तो सुख कहां से मिले’, ऐसा कहकर जो दुःख की परवाह नहीं करते, ऐसे भी बहुत हैं, परन्तु इनको भी दुःख मन में खटकता है न? ऐसा होते हुए भी संसार दुःखमय है, यह बात गले नहीं उतरती है, तो इसका क्या कारण है? जिस प्रकार से विचार करना चाहिए, उस रीति से विचार नहीं किया जाता, यही उसका स्पष्ट कारण है न? गुरु यही विचार करने के लिए प्रेरित करते हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

धर्म जानने साधुओं के पास ही जाना पडता है न?

धर्म को जानने की इच्छा हो तो धर्म को जानने के लिए किसके पास जाने का मन होता है? साधुओं के पास ही जाने का मन होता है न? एकांत धर्ममय जीवन जीने वाले तो साधु ही होते हैं न? धर्म ही जानना हो तो धर्मजीवी के पास जाना पडता है। इसलिए धर्म को जानने की इच्छा वाला बना हुआ जीव, जो कोई उसे ऐसे लगते हैं कि ये जीवन में एकांत धर्म का ही सेवन करने वाले हैं, उन्हें ढूंढ-ढूंढकर उनके पास जाता है और वहां धर्म के विषय में नया-नया जानने का पुरुषार्थ करता है।

जिस जीव की संसार के सुख पर से दृष्टि उठी और आत्मा के कल्याण के लिए जिसे धर्म को जानने का मन हुआ, वह जीव इतना तो जानता है कि साधुओं के सिवाय दुनिया में और कहीं से भी वह धर्म जानने को नहीं मिल सकता, जो मैं जानना चाहता हूं।

स्कूल और कॉलेजों में तो यह शिक्षण मिलता ही नहीं। संसार के सुख का रस जहां छलकता हो, वहां से सच्चे धर्म की शिक्षा मिल सकती है क्या? सच्चा धर्म तो प्रायः साधु ही समझाते हैं न? धर्म का सच्चा स्वाद जिनको आया है, वे ही सच्चे धर्म की समझ करा सकते हैं न? धर्म का सच्चा स्वाद जैसा छठे गुणस्थानवर्ती और आगे के गुणस्थान वाले साधु को आता है, वैसा स्वाद किसी अन्य को आता है क्या? सभा में इंद्रादि देव बैठे हों और चक्रवर्ती आदि राजा बैठे हों तो भी संसार को और संसार के सुख को खराब कौन बता सकता है?

केवल एक वर्ष की पर्यायवाले भी सच्चे साधु, जिस सुख का अनुभव कर सकते हैं, वह इंद्रादि भी नहीं कर सकते। शुद्ध धर्म का सच्चा स्वाद, यह वस्तु ही अनोखी है। इसलिए जिसे धर्म को जानने का मन होता है, वह सच्चे साधुओं के पास जाता है। साधुओं ने संसार के सुख को पहचाना, सही रूप में पहचाना, इसीलिए उसे छोडा न? इसलिए सच्चे सुख का उपाय तो वे ही बता सकते हैं न? संसार को असार और दुःखमय बताकर भगवान द्वारा कथित धर्म का उपदेश वही कर सकते हैं न? भगवान और साधु को मानने वाला सच्चा श्रावक भी संसार को असार कहता है। संसार दुःखमय है, दुःखफलक है और दुःख की परम्परा बढाने वाला है, ऐसा वह भी कहता है।

इस प्रकार जीव धर्म जानने के लिए गुरु के पास आने के लिए निकले, इसमें भी असंख्य गुण निर्जरा वह कर लेता है और गुरु से नमस्कार पूर्वक, विनयपूर्वक धर्म पूछे; गुरु जो कुछ कहें, उसे उपयोगपूर्वक सुने। यह सब उस जीव का क्रियास्थितिपन कहा जाता है। ऐसे क्रियास्थित बने हुए जीव के और असंख्य गुण निर्जरा बढ जाती है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा