बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

विवेक का अपलाप मत करो


मनुष्य भव, आर्यक्षेत्र आदि मिलने मात्र से और उत्तम कुल, जाति, बल, रूप, दीर्घायु और निरोग शरीर मिलने मात्र से श्री जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित धर्म की प्राप्ति नहीं हो जाती। श्री जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित धर्म की प्राप्ति के लिए तो सबसे अधिक सत्य-असत्य और सु-कुका विवेक चाहिए। यह विवेक दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम पूर्वक ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय के क्षयोपशम के बिना संभव नहीं है। अतः आर्यदेशादि उत्तम सामग्री को प्राप्त पुण्यात्मा को उत्तम विवेक प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील बनना ही चाहिए। यह विवेक प्राप्त करने के बाद सत्य-असत्य का और सु-कुका विवेक कर, ‘कुका त्याग करने के लिए और सुको स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए। इसके बिना परमशुद्ध श्री जिनधर्म की प्राप्ति संभव नहीं है।

जो जीव स्वयं को धर्म के अभिलाषी कहते हैं और फिर भी सत्य-असत्यतथा सु-कुके विवेक से दूर रहना चाहते हैं, उन जीवों की विषम दशा सचमुच दयनीय है। एक तरफ, सत्य की पूजा का दावा करना और दूसरी तरफ सत्य-असत्य के विवेक के प्रति अरुचि बताना, यह सचमुच दंभ को ही सूचित करता है। ऐसे लोगों का सत्य की पूजा का दावा, सत्य-असत्य के विवेक के प्रति उनकी अरुचि से पंगु बन जाता है और दंभरूप सिद्ध हो जाता है। शुद्ध देव की उपासना करने का इच्छुक आत्मा सुदेव और कुदेव का विवेक करने से इनकार करे, यह संभव ही नहीं है। जिनके जीवन दोषों से दूषित हों, जिनके उपदेश विवेकहीन हों और जिनकी मूर्तियां रागादि चिह्रों से कलंकित हों, उन्हें देव के रूप में मानने और पूजने का मन तो उन्हीं का हो सकता है, जो अठारह दोषों से रहित शुद्ध मोक्षमार्ग के प्ररूपक और रागादि चिह्रों से अकलंकित मुद्रा वाले शुद्धदेव के स्वरूप आदि से अज्ञात हों। शुद्ध देव के स्वरूप को जानने का दावा करने वाला अशुद्ध देवों की उपासना में भी रुचि रखे तो मानना पडेगा कि बेचारा मिथ्यात्व के रोग से पीड़ित आत्मा है।

किसी का आयुष्य और पुण्य बलवान हो तो मरने के लिए किया गया विषपान भी उसका नाशक न होकर रोग-निवारक बन जाता है। इससे विषभक्षण भी रोगनाशक है’, ऐसा कोई मानने लग जाए और यही बात उसके हृदय में स्थित हो जाए, तो वह स्वयं भी मरता है और अन्य को भी मारता है; इसी तरह देव-गुरु-धर्म के सम्बंध में भी विवेक की अपेक्षा न रखने वाले व्यक्ति कदापि श्री जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित धर्म को प्राप्त नहीं कर सकते। शुद्धदेव के सच्चे उपासक किसी के निंदक नहीं होते; परन्तु वे अवसर पाकर शुद्ध-अशुद्ध के स्वरूप को प्रकाशित करने वाले न हों, यह संभव नहीं। विवेकीजन शक्ति होने पर और आवश्यकता पडने पर सत्य के समर्थक, असत्य के उन्मूलक न बनें तो सत्य की अभिलाषी आत्माओं को सत्य की प्राप्ति कैसे हो सकती है? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 30 अक्तूबर 2012

उन्मार्ग का पोषण


सामान्य लोगों की बात तो दूर रही, परन्तु आजकल कतिपय धर्माचार्य माने जाने वाले भी मध्यस्थता के नाम से उन्मार्ग का पोषण करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। वास्तविक रूप में मार्ग को न प्राप्त करने वाले, पाकर भी हार जाने वाले अथवा भयंकर महत्वाकांक्षा से पीड़ित धर्माचार्य भी सत्य के खून में और असत्य के प्रचार में मध्यस्थता की ओट में सहायक होते हैं, तो फिर बेचारे गाढ मिथ्यात्व के उदय से ग्रस्त व्यक्ति मध्यस्थता के नाम से आत्मा को सद्धर्म से वंचित रखें, इसमें आश्चर्य क्या है?

तथाकथित समझदार गिने जाने वाले आत्मा, सत्य-झूठ में मध्यस्थता तभी धारण कर सकते हैं, जब वे सत्य की अपेक्षा भी स्वयं को अधिक मूल्यवान मानते हों। इससे स्पष्ट है कि, मध्यस्थता एक गुण है, परन्तु वह स्वयं के पुजारियों के लिए, न कि सम्यग्दृष्टियों के लिए। क्योंकि सम्यग्दृष्टियों के लिए तो वह भी दोषरूप बन जाता है। इसी कारण से आचार्य भगवान श्री अकलंकसूरीश्वरजी महाराज ने फरमाया है कि- सत्य और असत्य तथा सुऔर कुका विवेक करने की शक्ति से रहित आत्मा श्री जिनधर्म को नहीं प्राप्त कर सकता।

ऐसे विवेक की प्राप्ति के लिए दर्शनावरण और ज्ञानावरण के क्षयोपशम के साथ दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम की अतिशय आवश्यकता है, दर्शनमोहनीय के क्षयोपशम के लिए भी यह सच्चा उपाय है कि सत्य एवं असत्य का विवेक करने के लिए प्रयत्नशील बनना। सफेद-सफेद सब दूधऔर जो दूध कहा जाता है, वह भक्ष्य ही होता है’, ऐसा मानने की वृत्तिवाले बनने से जैसे अकारण मृत्यु का प्रसंग आ पडता है, वैसे ही तथाकथित गुरुओं को गुरु मान लेने से और तथाकथित धर्म को धर्म मान लेने से आत्मा का भयंकर अहित होता है।

दुनियादारी की किसी बात में भूल होने पर कदाचित एक जीवन बिगड सकता है, जबकि विवेक के अभाव में और माध्यस्थ भाव से तो बहुत अधिक बिगडने की संभावना रहती है। अविवेक अवस्था में सब देवों को देव मानने वाला, सब गुरुओं को गुरु मानने वाला और सब धर्मों को धर्म मानने वाला क्षंतव्य हो सकता है, क्योंकि मिथ्यात्व से पीड़ित होते हुए भी सुदेव और कुदेव, सुगुरु और कुगुरु तथा सुधर्म और कुधर्म में विवेक करने का वह विरोधी नहीं होता। ऐसा जीव विवेक करने की शक्ति आए, ऐसा ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करे तो क्षयोपशम पाकर विवेकयुक्त बन सकता है। विवेक को प्राप्त करने में सहायक हो, ऐसी क्रियाओं में उद्यमी बनी हुई आत्मा, मिथ्यात्व से युक्त होते हुए भी सुन्दर विवेक के मार्ग को पाकर उसकी सहायता से मिथ्यात्व का पराभव करके अनंतज्ञानी श्री वीतराग परमात्मा के द्वारा प्ररूपित धर्म को पा लेता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

दृष्टिराग, कामराग, स्नेहराग हलाहल विष-तुल्य हैं


तत्त्व के विषय में आप मरते समय तक अज्ञानी रहे तो यह इतना दुःखद नहीं, जितना मिथ्या सिर हिलाना और दुराग्रह सेवन करना दुःखद है। ज्ञानियों ने दृष्टिराग के विषय में तो स्पष्ट कहा है कि-

दृष्टिरागस्तु पापीयान्, दुरुच्छेदः सतामपि।

यह पापी दृष्टिराग तो सत्पुरुषों के लिए भी कठिनाई से नष्ट किया जा सकने वाला है। इस राग के वश होकर बहुत से सत्पुरुष भी हार गए हैं। परीक्षक शक्ति होने पर भी दृष्टिराग के पाप के कारण सत्य-झूठ की परीक्षा न कर सके। अतः गुणानुराग के अभिलाषी को इस दृष्टिराग का सर्वथा त्याग करना चाहिए।

गुणानुराग को पाने के लिए और उसे विकसित करने के लिए स्नेहराग और कामराग पर भी विजय पाना चाहिए। स्नेहादि के आधीन भी इस तरह नहीं हो जाना चाहिए कि जिससे सत्य-झूठ की पहचान ही न हो। स्नेहराग और कामराग के आधीन बनने से तो कुटुम्ब में भी झगडे बढ जाते हैं। एक के प्रति अति स्नेह हो तो उसकी भूल भूलरूप में नजर नहीं आती और उसके कहने से दूसरों की भूल न होने पर भी भूल नजर आने लगती है। फिर भाई-भाई के बीच में भी झगडा होता है न? विवेकीजनों को स्नेहराग के इतने आधीन नहीं बनना चाहिए।

कामराग से क्या होता है, यह तो लगभग सबको अनुभव सिद्ध है न? आजकल के लडके प्रायः अपनी स्त्री की कही हुई बात को सच्ची मानते हैं और माता-पिता की कही हुई बात को झूठी मानते हैं। स्त्री ने झूठी बात कही हो और इसलिए माता-पिता लडके को कहें कि, ‘इसकी बात झूठी हैतो भी सामने ऐसे बोलने वाले लडके भी हैं, जो कहते हैं कि यह (पत्नी) झूठ नहीं बोलती है।प्रायः कामराग का जोर ही ऐसा बुलवाता है। अतः कामराग और स्नेहराग भी, यदि सावधानी पूर्वक व्यवहार करना न आए तो, मारक सिद्ध होते हैं। किसी के गुण-दोष का निर्णय करना हो तो उसके प्रति राग-द्वेष से अलग रहकर निर्णय करना चाहिए। राग, दोष देखने नहीं देता और द्वेष, गुण देखने नहीं देता।

प्रतिपक्षी का राग उसके गुण की उपेक्षा करने के लिए प्रेरित करता है और प्रतिपक्षी का द्वेष, उसके दोष की उपेक्षा करने को प्रेरित करता है। कहावत है कि दुश्मन का दुश्मन अपना मित्र होता है। दृष्टिराग, स्नेहराग और कामराग वालों को ऐसी बहुत सावधानी रखने की आवश्यकता है। गुणराग और गुणीजनों के राग में यह अंतराय करने वाला नहीं हो, यह संभव है, परन्तु यदि आत्मा भान भूल जाए तो दृष्टिराग, स्नेहराग और कामराग भी गुणराग और गुणीजनों के राग में अंतराय करने वाला बनकर विशेष नाशक हो सकता है। मीठा लगता है, पर ये हलाहल जहर के समान हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 28 अक्तूबर 2012

जैन दर्शन गुण-प्रधान है, व्यक्ति केंद्रित नहीं


जैन दर्शन गुण-प्रधान है, व्यक्ति केंद्रित नहीं

कामराग, स्नेहराग और दृष्टिराग के कारण मूढता और व्युद्ग्राहिता शीघ्र पैदा हो सकती है। जैसे कामराग और स्नेहराग विद्यमान हों, परन्तु यदि वे जोरदार न हों तो वे न तो गुणानुराग को ही रोक सकते हैं और न सम्यक्त्व की प्राप्ति को ही रोक सकते हैं; वैसे दृष्टिराग भी सामान्य कोटि का हो, कुटुम्बादि के कारण मिथ्यादर्शन मिल गया हो और वह रुच गया हो, परन्तु यदि मेरा मिथ्या दर्शन ही अच्छा और सब खराब ही हैं’, ऐसा भाव पैदा करने वाला वह राग न हो तो, ऐसे राग की मौजूदगी में सामान्य गुणानुराग प्रकट न हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता।

यद्यपि दृष्टिराग सामान्य कोटि का भी जहां तक होता है, वहां तक सम्यग्दर्शन गुण तो प्रकट हो ही नहीं सकता। अतः सद्धर्म पाने के अभिलाषियों को तो इसकी छाया में भी नहीं जाना चाहिए। दृष्टिराग जब थोडा जोरदार बनता है, तब किसी भी तत्त्व की बात आए या देव-गुरु-धर्म के स्वरूप संबंधी बात आए, वहां यह अंतराय किए बिना नहीं रहता।

दृष्टिराग का यह स्वभाव है कि वह सद्-असद् का विवेक नहीं करने देता। वहां मेरा सो सच्चा’, यह भाव होता है। परन्तु सच्चा सो मेरायह भाव नहीं होता। तत्त्व की बात जब तक समझ में न आए, तब तक मध्यस्थ भाव रखना चाहिए। कुदर्शन का राग, दृष्टिराग है और श्री जिनदर्शन का राग दृष्टिराग नहीं है। क्योंकि, इतर दर्शन में अशुद्धता अधिक है। तथा वहां अमुक ही देव, अमुक ही गुरु और अमुक ही धर्म’, ऐसा ही माना जाता है। श्री जैनदर्शन में ऐसा नहीं है। श्री जैनदर्शन सब तरह से शुद्ध है और देव-गुरु-धर्म के वास्तविक स्वरूप का दर्शन करा कर श्री जैन दर्शन कहता है कि ऐसे स्वरूप वाला जो कोई भी हो, वह देव कहलाता है, इस प्रकार के स्वरूप वाला कोई भी हो, वह गुरु कहलाता है और ऐसे स्वरूप वाला कोई भी हो, वह धर्म कहलाता है।

श्री जैन दर्शन गुण-प्रधान है, व्यक्ति केंद्रित नहीं है। यहां देव-गुरु-धर्म की मान्यता एवं व्याख्या गुणों के आधार पर की गई है और उनके सुअथवा कुका मापदण्ड गुणों के आधार पर होता है, किसी व्यक्ति अथवा जड मान्यता के आधार पर नहीं। जो अमुक-अमुक गुणों की कसौटी पर खरा है, राग-द्वेष रहित है, केवलज्ञानी है, वही सुदेव है, जो अमुक-अमुक गुणों का धारक है (आचार्य के 36 गुण, साधु के 27 गुण आदि), वही सुगुरु है और अमुक-अमुक गुणों से युक्त अथवा स्वरूप वाला (जिनाज्ञा, अरिहंत देवों द्वारा प्ररूपित मार्ग का दिग्दर्शन कराने वाला) ही सच्चा एवं सुधर्म है। हमारा देव-गुरु-धर्म के प्रति अनुराग गुण-राग है, दृष्टि-राग नहीं। यह गुणराग तो मुक्ति की ओर ले जाने वाला है। हम हमारे देव-गुरु-धर्म ही सच्चे’, ऐसा कहते अवश्य हैं, परन्तु वह गुणों और उनके वास्तविक स्वरूप के आधार से ही कहते हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 27 अक्तूबर 2012

मान-कषाय मिथ्यात्व में धकेल देता है


जहां तक जीवों को अपनी अल्पता और भगवान श्री जिनेश्वर देवों की अनंतगुणी महत्ता का भान कायम रहता है, वहां तक तो जीव मिथ्यात्व से सहज ही बच जाता है। परन्तु, जब जीव अपनी अल्पता को भूल जाता है और अपनी ही महत्ता की कल्पना करने लगता है, तब मान-कषाय यह काम करता है कि ऐसे जीव को धकेल-धकेल कर यहां तक धकेल देता है कि मैं सच्चा और भगवान श्री जिनेश्वर देव झूठे।

कल्याण के अभिलाषी जीवों को तो ऐसा ही विचार करना चाहिए कि भगवान श्री जिनेश्वर देव ऐसे थे कि वे कदापि कुछ भी मिथ्या नहीं कह सकते। जिनमें राग नहीं, द्वेष नहीं, मोह नहीं, जो वीतराग और सर्वज्ञ हैं, उन तारकों के वचन कदापि मिथ्या नहीं हो सकते।

परन्तु, मान से अतिशय ग्रसित जीव इस बात को भूल जाते हैं। कहां मैं अल्पज्ञानी और कहां वे अनंत ज्ञानी? इस बात को भूल कर अनंतज्ञानी के वचन की प्रामाणिकता के विषय में संशय ही किया करे; अथवा उन तारक का वचन मिथ्या है’, ऐसा मानने की मूर्खता करे, तो यह मान-कषाय का साधारण प्रभाव है? महान समर्थ व्यक्ति भी इस मान-कषाय के आधीन बनकर पतित हो जाते हैं और वे ऐसे पाप के उपार्जन करने वाले बन सकते हैं कि जिस पाप के योग से वे लम्बे समय तक भी संसार में भटकने वाले बन जाते हैं। इसलिए मान-कषाय से हमेशा बचना चाहिए। इसके लिए जीवन में सरलता-ऋजुता चाहिए।

मान-कषाय से बचने के लिए सदैव इस बात का स्मरण रखना चाहिए कि वही सत्य और शंकारहित है जो भगवान श्री जिनेश्वर देवों ने प्ररूपित किया है’, इस वाक्य को और इस आशय वाले दूसरे भी वाक्यों को याद करके, भगवान श्री जिनेश्वर देवों के वचनों की प्रामाणिकता को हृदय में प्रमुख स्थान दिया जाए तो सूक्ष्मार्थ आदि के सम्बन्ध में प्रायः संशय उत्पन्न नहीं हो सकता और कदाचित उत्पन्न हो जाए तो वह टिक नहीं सकता। इससे गलत अर्थ में पडने पर भी अपनी मान्यता का आग्रह नहीं होगा और तुरन्त श्री जिनेश्वर देवों के ज्ञान की विशालता का स्मरण हो आएगा।

इसके साथ ही एक बात और, कि किसी भी प्रकार के मिथ्यात्व से बचने और दुर्गति को रोकने के लिए स्वाध्याय का क्रम निरंतर जारी रखना चाहिए। व्यक्ति कितना ही ज्ञानी और ऊंचे पद पर आसीन क्यों न हो वह आज के युग में उतना ज्ञानी अथवा केवलज्ञानी नहीं हो सकता, यह सर्वविदित है, इसलिए जितना भी अध्ययन स्वाध्याय किया जाए, कम है। सीखने की अंतिम सांस तक चेष्टा, यह व्यक्ति को सरल और विवेकी (सम्यग्दृष्टि) बनाए रखने में सहायक है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

देश से दरिद्रता मिटाने का उपाय


भारतवर्ष में एक ओर गरीबी और भूखमरी के हालात हैं, वहीं दूसरी ओर आबादी का एक चौथाई अभिजात्य वर्ग सिर्फ चाय-पान-अभक्ष्य व शराब आदि के सेवन पर ही इतना पैसा बर्बाद कर देता है कि उसमें एक परिवार आठ परिवारों का पेट पाल सकता है। यदि यह बर्बादी रुक जाए तो गरीबी और भूखमरी के हालात तो इस देश में रह ही नहीं सकते। अकाल और बेकारी के नाम पर चिल्लाना और निरर्थक व्यय बन्द न करके उनमें वृद्धि करते रहना, यह कहां की परोपकार-वृत्ति है? उद्धार की बातें करने वाले यदि वाकई देश की चिन्ता करते हैं तो क्यों नहीं जीवन को मर्यादित, नियमित और संयमित बनाते हैं?
भारत में पूरी तरह शराबबंदी, अभक्ष्य पर रोक, धूम्रपान पर रोक, यहां तक कि किसी भी मनुष्य को चाय नहीं पीना, पान नहीं खाना, अश्लीलता और समाज को विकृत करने वाले सिनेमा आदि नहीं देखना; इन उपकार करने के लिए निकलने वालों ने ऐसे सुधार किए हैं क्या? बूट अधिक मूल्य के क्यों? इन सब वस्तुओं पर होने वाले अपव्यय रोककर जीवन को स्वच्छन्दता से बचाया जाए तो शान्ति दौडी-दौडी आपके चरण चूमेगी।
आप सब रोटी-कपडा-मकान का नाम लेकर चिल्ला रहे हैं, परन्तु यह मुसीबत तो उन स्वच्छन्दी लोगों की देन है। अनाज-पानी बिना नहीं चलता, यह तो ठीक है; परन्तु शराब, अभक्ष्य, चाय, पान, सिनेमा, होटल के बिना भी नहीं चलता; यह कौन मानेगा, क्यों मानेगा? मौज-शौक और राग-रंग में कितना व्यय हो रहा है? यदि नाटक-सिनेमा न देखें तो सप्ताह भर की थकान कैसे उतरेगी? शाम को शराब न पीएं तो दिनभर की थकान और तनाव कैसे दूर होगा और कैसे रात को ठीक से नींद आएगी? ऐसी गलत मान्यताएं आज पनप रही हैं। जरा सोचिए कि यह मनुष्य जीवन है। थोडा अपनी दशा पर विचार करिए। भोजन करने बैठते हो तो एक बार, दो बार अथवा तीन बार भोजन करने के पश्चात बाहर खाने की आवश्यकता क्या? जहां-तहां क्यों खाएं? होटल में ताजी खाद्य-सामग्री होती है क्या? वहां तो बासी, सडा-गला सब चलता है। रात्रि की बची हुई सामग्री कितने होटल वाले फेंक देते हैं? अधिकांशतः तो दूसरे दिन ताजा सामग्री के साथ उसे मिलाते ही हैं। वहां उपयोग में लिया जाने वाला आटा-मैदा कहां से आता है? उसका गेहूं सडा-गला तो नहीं था? उसमें कंकर तो नहीं थे? उसमें लट-धनेरिए-जीव तो नहीं थे?
रोग क्यों बढे? कभी इसकी गहराई में गए हैं? पुराने समय के खान-पान और बीमारियों से आज के खान-पान और बीमारियों की कभी तुलना की है? डॉक्टर बढे हैं, परन्तु बीमारियां घटी है या बढी हैं? इसका मूल कारण क्या है, कभी गम्भीरता से इसकी गवेषणा की है? सोचिए जरा! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
(नोट- परम तारक गुरुदेव के प्रवचन का यह अंश लगभग देश की आजादी के समय का है, जो आज भी वक्त की कसौटी पर बिलकुल सही है. काश उस समय से ही देश के नेता राष्ट्रीय चरित्र के निर्माण पर अधिक ध्यान केंद्रित करते. शिक्षा पद्धति को भी चरित्र निर्माण के रस में भिगोते, तो आज देश भ्रष्टाचार के दल-दल में फंसा नजर नहीं आता.)

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

हमारा ज्ञान कितना?


भगवान श्री जिनेश्वर देवों का कोई वचन समझ में न आए और संशय पैदा हो जाए तो भी ऐसा लगे कि मेरा ज्ञान कितना? हमारी बुद्धि कितनी? मैं तो छद्मस्थ हूं, मेरी समझ में न भी आए, परन्तु यह वचन भगवान श्री जिनेश्वर देवों ने कहा है, इसलिए यह वचन तो यथार्थ ही है।जिन किन्हीं आत्माओं को इस संशय आदि से बचना हो और मार्ग में सुस्थिर रहना हो, उन्हें श्री जिनेश्वर देवों के वचन की प्रामाणिकता की बात को इस तरह रट लेनी चाहिए कि किन्हीं भी संयोगों में यह बात याद आए बिना न रहे। और चाहे जैसे आवेश में भी भगवान श्री जिनेश्वर देवों के वचन की प्रामाणिकता में संशय पैदा न हो सके।

भगवान श्री जिनेश्वर देवों के वचन की प्रामाणिकता के विषय में संशय होने लगा कि सांशयिक मिथ्यात्व आया ही समझिए। जहां तक श्री जिनवचन की प्रामाणिकता के विषय में संशय पैदा नहीं हुआ, वहां तक शास्त्र वर्णित अर्थ के विषयों में संशय उत्पन्न होने पर भी सांशयिक मिथ्यात्व आ गया, ऐसा नहीं कहा जा सकता। श्री जिनवचन की प्रामाणिकता के विषयों में संशय पैदा होना ही सांशयिक मिथ्यात्व है। अपनी बुद्धि, कुशलता और समझ-शक्ति का गर्व करने वाला सम्यग्दृष्टि जीव, इस मिथ्यात्व का स्वामी बन जाए, यह संभव है।

किसी बात को न समझ पाने के कारण शंका पैदा हो और फिर विचार करे कि भगवान ने ऐसा कहा है, परन्तु यह इस प्रकार घटित कैसे हो सकता है? तो मिथ्यात्व को लेने जाना पडेगा या आ ही जाएगा? अथवा ऐसा विचार करे कि भगवान असत्य नहीं कहते, परन्तु यह बात सत्य हो तो मेरे जैसे बुद्धिमान को समझ में न आए, यह कैसे हो सकता है? ऐसा विचार संशय को स्थिर बनाता है और यदि इस विचार में परिवर्तन न आए तो कदाचित यह विचार मिथ्यात्व को उदय में ला सकता है।

स्वरस-वाहिता (अभिमान युक्त आग्रह) इतनी भयंकर वस्तु है कि महाज्ञानी और बुद्धिशाली सम्यग्दृष्टि आत्माओं को भी यदि वे सावधान न रहें और स्वरस वाहिता के वश में हो जाएं तो यह उनको सांशयिक मिथ्यात्व अथवा आभिनिवेशिक मिथ्यात्व के स्वामी बना देती है। सांशयिक मिथ्यात्व में तो भगवान श्री जिनेश्वर देवों के वचन की प्रामाणिकता के सम्बंध में ही संशय पैदा होता है, जबकि आभिनिवेशिक मिथ्यात्व में तो संशय नहीं, अपितु भगवान श्री जिनेश्वर देवों के वचनों के मिथ्यापन विषयक निर्णय है। जबकि सम्यकदृष्टि का सोच यह होना चाहिए कि उन तारकों ने जो कुछ प्ररूपित किया है, वह वैसा ही है। यदि वह मेरी समझ में न आए तो यह मेरा दोष है। परन्तु, भगवान श्री जिनेश्वर देवों ने जो प्ररूपित किया है, वह सत्य ही है; इसमें शंका नहीं है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

जिन-वचनों पर संशय न हो


श्री जिनागमों द्वारा वर्णित तत्त्वों के स्वरूप के विषय में संशय और वह संशय भी इस प्रकार का कि जिस संशय के कारण भगवान श्री जिनेश्वर देवों के वचन की प्रामाणिकता संबंधी संशय पैदा हो जाए, इसे सांशयिक मिथ्यात्व कहते हैं। जैसे कि सब दर्शन प्रमाणरूप हैं या अमुक-अमुक दर्शन प्रमाणरूप है? इस प्रकार संशय; अथवा भगवान का यह वचन प्रमाणरूप है या नहीं? इस प्रकार का संशय, सांशयिक मिथ्यात्व है। वैसे तो, सम्यग्दृष्टि आत्माओं को भी कभी-कभी भगवान श्री जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित सूक्ष्म अर्थों के विषय में संशय पैदा हो जाता है, परन्तु इतने मात्र से ही सम्यक्त्व चला जाता है, ऐसा नहीं।

ज्ञानावरणीय कर्म का उस प्रकार का क्षयोपशम न हो अर्थात् सूक्ष्मार्थ समझ में न आए, अथवा कई विषय ऐसे ही हैं, जिन्हें भगवान श्री जिनेश्वर देवों के प्रति श्रद्धा से ही मानने पडते हैं। अर्थात् कई बार सम्यग्दृष्टि जीव को भी संशय पैदा हो जाता है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। परन्तु, इतना संशय भी सम्यग्दृष्टि आत्माओं में पैदा हो जाए, तो इसका कारण क्या हो सकता है? इसका कारण यह है कि जब तक जीव मोहनीय की सातों प्रकृतियों को सर्वथा क्षीण नहीं कर डालता, वहां तक जीव को क्षायिक सम्यग्दर्शन प्रकट नहीं होता। जिन जीवों में सम्यक्त्व तो प्रकट हुआ, परन्तु यदि वह क्षायिक प्रकार का न हो तो उन जीवों में मिथ्यात्व मोहनीय का प्रदेशोदय चालू रहता है।

जिन सम्यग्दृष्टि आत्माओं को मिथ्यात्व मोहनीय का प्रदेशोदय चालू होता है, वे सम्यग्दृष्टि आत्मा, सर्वविरति गुणस्थान को प्राप्त साधु हों तो भी उन्हें कभी सूक्ष्मार्थ के विषय में संशय पैदा हो जाना संभव है। परन्तु वे जीव अपने इस संशय को, भगवान श्री जिनेश्वर देवों के वचनों की प्रामाणिकता के ज्ञान और श्रद्धा द्वारा सहज में दूर कर सकते हैं। सूक्ष्मार्थ आदि के सम्बन्ध में हृदय में जब-जब संशय पैदा होने लगे तब-

तमेव सच्चं निस्संकं जं जिणेहि पवेइयं

वही सत्य और शंकारहित है जो भगवान श्री जिनेश्वर देवों ने प्ररूपित किया है’, इस वाक्य को और इस आशय वाले दूसरे भी वाक्यों को याद करके, भगवान श्री जिनेश्वर देवों के वचनों की प्रामाणिकता को हृदय में प्रमुख स्थान दिया जाए तो सूक्ष्मार्थ आदि के सम्बन्ध में प्रायः संशय उत्पन्न नहीं हो सकता और कदाचित उत्पन्न हो जाए तो वह टिक नहीं सकता। कोई भी विषय समझ में न आए और उसमें संशय पैदा हो जाए तो उसके निवारण का सबसे अच्छा उपाय यही है कि भगवान के वचनों की प्रामाणिकता को याद किया जाए।’ ‘भगवान श्री जिनेश्वर देवों ने जो कुछ कहा है, वह सत्य ही है’, ऐसा मन में विचारा जाए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा