रविवार, 30 सितंबर 2012

संतति के परलोक की चिंता होती है?


संतति के परलोक की चिंता होती है?

क्या अपने घर में जन्मे लडकों को आप दुर्गति में भेजना चाहेंगे? उसके परलोक की आपको चिंता होती है या नहीं? जिसे परलोक की चिंता नहीं, वह नास्तिक है। सामान्य आस्तिक भी वह कहा जाता है, जिसे परलोक का विचार हो। केवल परलोक का विचार आता हो तो भी मानस बदल सकता है। धीरे-धीरे ऐसा भी हो सकता है कि बाप जितना अच्छा न लगे, उतने गुरु अच्छे लगने लगें।अपने लडके तत्त्वज्ञान को जाने बिना संसार चलाते हैं, यह अच्छा नहीं है; ऐसा आपको विचार आता है? ‘लडके संसार को छोड दें तो अच्छा, परन्तु संसार में रहें तो भी धर्म को न भूलें’, इतना भी उनका हित आपके हृदय में बसा है या नहीं?

संसार पर्याय को काटने और मोक्षपर्याय को प्रकट करने का प्रयत्न करना है, ऐसा निर्णय यदि आपने कर लिया हो तो आप आपके कुटुम्बियों के कल्याण के लिए भी यथाशक्ति प्रयत्न किए बिना नहीं रह सकते। अब तक कषायों और इन्द्रियों के विजेता बनकर अनंत आत्माओं ने अपने मोक्षपर्याय को प्रकट किया है। वे सब स्वरूप-रमणतारूप सुख में निमग्न हैं। यह सुख परिपूर्ण भी है और अनंतकाल में भी कभी जाने वाला नहीं है। दुःख का नाम नहीं और सुख का पार नहीं, और यह सुख भी ऐसा कि कभी जाए नहीं।

संसार पर्याय का अनुभव करने वालों को चाहे जितना सुख हो तो भी दुःख का सर्वथा अभाव नहीं होता। संसार पर्याय का अनुभव करने वालों में सुखी बहुत थोडे हैं और दुःखी बहुत अधिक हैं। संसार का सुख भी ऐसा है कि या तो यह चला जाता है या अपने को जाना पडता है। हम तो अभी संसार-पर्याय का अनुभव करते हैं, परन्तु हमें यह पर्याय खटकता है और मोक्षपर्याय पाने की इच्छा मन में जागती है, ऐसा तो हम कह सकते हैं न?

हमारा अस्तित्व तो अनादिकाल से है, परन्तु हमारा बहुत सारा काल निगोद अवस्था में चला गया। उसमें से हम हमारी भवितव्यता के कारण व्यवहार राशि में आए। व्यवहार राशि में आने पर भी हम अभी चार गतियों में भटक रहे हैं, क्योंकि अभी हम कषायों और इन्द्रियों के विजेता नहीं बन पाए और इसके कारण हमारे मोक्षपर्याय को हम प्रकट नहीं कर पाए।यह बात जिसके हृदय में बराबर बैठ जाती है, उसे कषायों और इन्द्रियों पर विजय पाने की इच्छा होती है न? कषायों और इन्द्रियों से जो छूटे, वही संसार से छूटे। इसलिए हम भी कषायों और इन्द्रियों से छूट सकते हैं। इसके बिना दुःख का सर्वथा अभाव नहीं हो सकता और सुख का सम्पूर्ण भोग भी नहीं हो सकता। ऐसा समझने वाले को अपने स्नेही सम्बन्धियों के लिए भी ऐसा विचार तो आता है न कि यह बात उन्हें भी समझ में आ जाए तो अच्छा। यह बात यदि वे न समझे तो वे संसार में भटकते रहेंगे?’ -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 29 सितंबर 2012

बिना ज्ञान की क्रिया से मोक्ष संभव नहीं


आपको देव, गुरु और धर्म सम्बंधी अच्छी से अच्छी सामग्री मिली है, फिर भी आप मोक्षमार्ग के प्रति कितने लक्ष्यशील हैं? आप अज्ञानी हैं या विषय रस में क्षुब्ध हैं? हमारे यहां तो जो जानकार हो, परन्तु रुचि-रहित हो तो भी अज्ञान कहा जाता है। जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञान भी निश्चयात्मक होना चाहिए। तत्त्वों के विषय में सच्चा ज्ञान निश्चयपूर्वक होना चाहिए। इसके बिना, अच्छी सामग्री भी हाथ में आ जाए तो उसके हाथ से निकल जाने में कितनी देर लगने वाली है?

जिसे सम्बंध का महत्त्व मालूम नहीं होता, वह व्यवहार में कैसे टिक सकता है? सम्बंध निभा तो निभा, नहीं तो तोडते भी देर नहीं और जोडते भी देर नहीं। इसी तरह यह देव-गुरु-धर्म का सम्बंध हम कहां तक निभाते हैं? यह सम्बंध कितना बहुमूल्य है, इसका ज्ञान नहीं है, इसलिए अब कभी यह सम्बंध न टूटे’, ऐसा व्यवहार करने की इच्छा भी नहीं है, ऐसा कहूं तो चल सकता है न? आपके इस देव-गुरु-धर्म के सम्बंध को कोई तोडना चाहे तो सरलता से तोड सकता है या उसे ऐसा करने में निराश होना पडेगा? भवांतर में भी यह देव-गुरु-धर्म का सम्बंध बना रहे, ऐसी इच्छा हो तो बोलो! बच्चा पतासों में हीरा दे सकता है, क्योंकि उसके लिए पतासा बडा और मीठा है; वैसे ही संसार-सुख के लोभ में आप इस देव-गुरु-धर्म की उपासना को छोड देंगे या नहीं?

भगवान के शासन के तत्त्वज्ञान के विषय में आप अनजान हैं, इसलिए उन्मार्ग में घसीट लिए जाने में क्या देर लग सकती है? आप प्रतिदिन पूजा, सामायिक, व्याख्यान श्रवण, गुरुभक्ति आदि करते हैं तो भी कभी यह विचार नहीं आया कि तत्त्वज्ञान के बिना कैसे चलेगा? संसार-सुख के रस में लीन रहेंगे तो भी यह क्रिया मुक्ति दे देगी? क्या केवल क्रिया से मुक्ति हो सकती है?

शास्त्र कहते हैं कि- ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः।क्या यह झूठ है? आप नहीं समझते हैं, परन्तु समझने का प्रयास करना चाहिए, ऐसा भी आप मानते हैं या नहीं? कोई समझाए तब प्रसन्नता होती है? या हम जो करते हैं, वह ठीक है, ऐसा मानते हैं? व्यापारी के यहां माल लेने आने वाला क्या कहता है? माल पसंद आएगा और भाव पोसाएगा तो लेंगे, परन्तु लेने की भावना तो है न? वैसे ही, आप यहां आते हैं तो तत्त्वज्ञान के जिज्ञासु बनकर आते हैं न? व्यवहार में उतर सकने जैसी न हो तो भी बात तो पसंद आती है न? ‘समझ में आएगा तो मानेंगे और शक्ति होगी तो लेंगेऐसा आपके मन में है या नहीं? इस प्रकार खुले दिल से, खुले दिमाग से, आप प्रतिदिन जिज्ञासु बन कर सुनेंगे तो पाट पर बैठने वालों को आपको समझाने के लिए प्रयत्न करना पडेगा। परन्तु, आप तो केवल हां, जीकरने वाले हैं, तो क्या हो सकता है? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

मानवता की कमी


अज्ञानी (भोले) व्यक्ति का अनुचित लाभ, आप तो नहीं उठाते हैं न? आपका जिसके साथ लेन-देन हो, वह यदि अज्ञानी हो तो आप क्या करेंगे, क्या सोचेंगे? अच्छा मौका मिला, ऐसा तो आपको नहीं लगता है न? जो अपने भरोसे रहे, उसे कैसे ठगा जाए? जिसने हम पर भरोसा किया, उसने हमें अच्छा व्यक्ति माना है न? अच्छे व्यक्ति के रूप में उसने हमें मान दिया है न? भले ही हम अच्छे न हों, फिर भी जिसने हमें अच्छा माना, उसके प्रति तो हमें बुरा नहीं बनना चाहिए न?

जैसे क्षत्रिय लडते तो थे, परन्तु लडने के लिए आए हुए के साथ लडते थे। बिना कारण लडाई नहीं करते थे और यदि सामने वाले के पास हथियार न हो, तो उसे स्वयं हथियार देने के बाद लडते थे। इसमें भी नीति का पालन करते थे। शस्त्र-रहित के सामने शस्त्र लेकर नहीं लडते थे। वैसे ही आप व्यापार तो करते हैं, परन्तु व्यापार में नीति का पालन करते हैं या नहीं? आप पर कोई विश्वास करे तो उसके विश्वास का अनुचित लाभ तो आप नहीं उठाते हैं न? विश्वास रखकर आपकी पेढी पर आने वाले के साथ आप खोटा माप-तौल तो नहीं करते हैं न? शुद्ध वस्तु लेने आए हुए को मिलावटी वस्तु तो नहीं देते हैं न? किसी की अमानत में खयानत तो नहीं करते हैं न?

आज हालात ऐसे हो गए हैं कि विश्वास रखने वाला सरलता से ठगा जाता है। यह तो मनुष्यता की भी नीलामी है। विश्वासी की गरदन मरोडे वह शूरवीर तो है ही नहीं, परन्तु मानव भी नहीं हो सकता। ऐसे लोग निश्चित ही मानव के वेश में दानव ही हैं। मानवता की जब सचमुच कमी हो जाती है, तब धर्म बहुत दुर्बल बन जाता है, यह कोई नई बात नहीं है। आज समाज की ऐसी ही दशा बनती जा रही है। ऐसी दशा में जो आनन्द मानते हैं, वे कदाचित् दानादि भी करते हों, तो भी वह दानादि वे लोग धर्म के लिए ही करते हैं, ऐसा कैसे माना जाए? विश्वासी की गर्दन मरोडने वाले मन्दिर-उपाश्रय में भी जाएं या धर्म का चोला पहिन लें तो भी उसका आध्यात्म की दृष्टि से कोई अर्थ नहीं, वह स्वयं (की आत्मा) को और अन्यों को धोखा देने का काम ही करते हैं, उन्हें किसी भी रीति से धार्मिक कहा ही नहीं जा सकता है, वे पाखण्डी ही हैं। ऐसे ही मिथ्यात्वी, मानवता के दुश्मनों की वजह से आज धर्म कमजोर हो रहा है। आपको भाग्य के योग से सामग्री तो बहुत अच्छी मिल गई है, परन्तु इस सामग्री को आप पहचान सके हैं या नहीं? और इस सामग्री से जो लाभ उठाया जा सकता है, वह उठाने की आपकी भावना है या नहीं? बहुत से तो अज्ञानी हैं और जो शिक्षित हैं, उनमें बहुत सारे संसार-सुख के रस में क्षुब्ध हैं। ऐसों को चाहे जितने अच्छे भगवान मिल जाएं, वे भगवान से किस बात की आशा करेंगे? वे भगवान से तुच्छ सांसारिक सुख ही मांगेंगे न? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

पूजा करते हुए कभी विचार आता है...?


आप सब प्रतिदिन भगवान् की, श्री जिनेश्वर देव की पूजा करते ही होंगे? प्रतिदिन त्रिकाल पूजा करते हैं या एक काल पूजा करते हैं? प्रतिदिन त्रिकाल पूजा नहीं कर सकते, अतः एक काल पूजा करते हों, ऐसा हो सकता है, परन्तु पूजा किए बिना तो नहीं रहते हैं न? भगवान् श्री अरिहंत देव ऐसे उपकारी हैं कि यदि उन तारकों का उपकार ध्यान में आ जाए, तो उन तारकों को कभी नहीं भुलाया जा सकता, कभी हृदय से दूर नहीं किया जा सकता। आपको भगवान् की पूजा करते समय क्या याद आता है?

वे वीतरागी थे, इत्यादि?’

वीतरागी तो वे थे ही, परन्तु, हम उन तारक की पूजा क्यों करें? हमें ऐसी क्या आवश्यकता पड गई कि हम अन्य किसी देव की पूजा नहीं करते और इन देव की पूजा किए बिना रह नहीं सकते? यदि आप में तत्त्वज्ञान होता तो आप कह सकते थे कि संसार में भटकते-भटकते अनंत काल हो गया। उसमें उपकारी भी बहुत मिले, परन्तु सब उपकारियों की अपेक्षा तीर्थंकर परमात्मा का उपकार सर्वाधिक है। इन परमतारक जैसा कोई उपकारी नहीं। क्योंकि, उन्होंने हमें अपने वास्तविक स्वरूप का भान कराया और हम हमारे स्वरूप को कैसे प्रकट करें, इसका मार्ग भी बताया। कर्म के योग से हम संसार में भटकते रहते हैं; कर्म के योग से संसार में भटकते हुए अनंतकाल बीत चुका है। ये तीर्थंकर परमात्मा मिले और हमारा अनंतकाल का यह दुःख टल गया। क्योंकि हम उनके बताए मार्ग पर चलकर इस जन्म-मरण के चक्र को भेद सकते हैं और अक्षय सुख, अक्षय आनंद को प्राप्त कर सकते हैं।भगवान् की पूजा करते समय ऐसा कोई विचार कभी आपको आता है?

भगवान् श्री जिनेश्वर देव मोक्ष मार्ग के दाता हैं, ऐसा आपने कभी सुना है या नहीं? आपको ऐसा विचार कभी आया कि ऐसे समर्थ और सर्वज्ञ भगवान् ने जगत् के जीवों के कल्याण के लिए अन्य कोई मार्ग न बताते हुए एक मात्र मोक्ष मार्ग ही क्यों बताया? ऐसे वीतराग और सर्वज्ञ भगवान् ने जब जीवों के कल्याण के लिए एक मात्र मोक्ष मार्ग ही बताया, तो इतना तो निश्चित ही है कि मोक्षमार्ग के सिवाय अन्य किसी मार्ग से जीव का वास्तविक कल्याण नहीं हो सकता।यदि आपको ऐसा विचार भी आया होता तो भी आपको तत्त्वों के स्वरूप को समझने की इच्छा होती और इसके लिए आपने प्रयत्न भी किया होता।

तत्त्वज्ञान वाला व्यक्ति भगवान और उनके मार्ग को भलीभाँति पहचान सकता है। जो जिसको पहचानता ही नहीं, वह उससे समुचित लाभ कैसे उठा सकता है? जो तत्त्व को नहीं जानता, उसके हाथ में सत्य आ गया हो तो भी जो फल मिलना चाहिए, वह फल उसे नहीं मिल पाता।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 26 सितंबर 2012

जीव और कर्म का योग अनादि है


जीव और कर्म का योग अनादि है

जीव और अजीव, ये दोनों तत्त्व जैसे अनादिकाल से हैं, वैसे जीव और अजीव तत्त्व का, अर्थात् जीव और कर्म का योग भी अनादि से ही है। पहले जीव शुद्ध था और बाद में कर्म के योग वाला बना’, ऐसा मानने पर प्रश्न खडा होगा कि शुद्ध जीव, कर्म के योग वाला अर्थात् अशुद्ध क्यों कर बना? जिस जीव में राग-द्वेष या अज्ञान आदि कुछ न हो और जो केवल शुद्ध स्वरूप वाला हो, वह जीव कर्म के संयोग वाला बन ही नहीं सकता। क्योंकि, ऐसा मानने से किसी प्रकार का कार्य-कारण भाव घटित नहीं हो सकता।

जो अशुद्ध हो और यदि उसमें शुद्ध होने की योग्यता हो, तो वह शुद्ध बन सकता है, परन्तु जिसका कोई कारण न हो, अर्थात् जो जीव शुद्ध स्वरूपवाला है, वह अशुद्ध स्वरूप वाला बने, यह संभव नहीं है। सच्चिदानंदमय जिसका स्वरूप है और जिसके शरीर, इन्द्रियां आदि कुछ न हो, वह जीव कर्म के योग वाला बना, ऐसा यदि कोई कहे तो उसे यह समझाना पडेगा कि वह जीव किस कारण से कर्म के योग वाला बना? शुद्ध जीव के लक्षण में ऐसी एक भी बात नहीं है, जो शुद्ध जीव को कर्म के योग वाला बना सकती हो। राग नहीं, द्वेष नहीं, अज्ञान नहीं, इन्द्रियां नहीं; ऐसा जीव कर्म के योग वाला कैसे बन सकता है? नहीं बन सकता।

इसलिए जैसे जीव और अजीव के अस्तित्व को अनादिकालीन मानना पडता है, वैसे जीव के साथ कर्म के योग के अस्तित्व को भी अनादिकालीन ही मानना पडता है। हमारी आत्मा कर्म से सम्बद्ध है न? हां! कब से हमारी आत्मा कर्म से सम्बद्ध है? अनादिकाल से। ऐसा माना, इसीलिए जीव और अजीव का अस्तित्व अनादिकालीन है, यह बात सिद्ध हुई। हम कभी नहीं थे और पैदा हुए, ऐसा नहीं है। यह जगत् कभी नहीं था और पैदा हुआ, ऐसा भी नहीं है। इसी तरह हम पहले शुद्ध ही थे और बाद में कर्म के योग से अशुद्ध बन गए, ऐसा भी नहीं है। जीव का अस्तित्व भी अनादिकालीन है; अजीव का अस्तित्व भी अनादिकालीन है और जीव एवं कर्म का योग भी अनादिकाल से है।

जीव और अजीव का अस्तित्व जैसे अनादिकाल से है, वैसे जीव और अजीव का अस्तित्व कितने काल तक रहने वाला है? कोई काल ऐसा नहीं आने वाला है, जिसमें जीव और अजीव का अस्तित्व मिट ही जाता हो। अस्तित्व मिटता हो तो ये जाएं कहां? जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य अनादिकालीन हैं, नित्य हैं; परन्तु उनकी अवस्थाएं बदलती ही रहती हैं। जीव ने यहां जन्म लिया तो कहीं से मर कर और यहां जीव मरा तो यहां से रवाना होकर कहीं उत्पन्न हुआ। वस्तुतः जीव न तो जन्मता है और न मरता है। शरीर का परिवर्तन होता है, उसे हम जन्म-मरण कह देते हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

ईश्वर किसी का कर्ता और हर्ता नहीं!


मोक्ष का अर्थ क्या है? आत्मा कर्म के योग से सर्वथा मुक्त बने, यही न? यदि कर्म का योग ही न हो तो मोक्ष-प्राप्ति की बात ही नहीं उठती, अर्थात् मोक्ष तत्त्व को मानने की जरूरत ही नहीं रहती। जो आत्मा की मोक्षपर्याय को मानते हैं, उन्हें आत्मा के साथ कर्म के योग को मानना पडता है। यह कर्म का योग ही आत्मा की मोक्ष पर्याय को प्रकट करने में बाधक है, यह मानना पडता है। वैसे तो जीव और अजीव, ये दो प्रकार के ही तत्त्व इस जगत् में विद्यमान हैं। किसी भी वस्तु का जब स्वतंत्र रूप से विचार करते हैं तो प्रतीत होता है कि या तो वह जीव है या अजीव है।

ये दोनों तत्त्व किसी के द्वारा रचित हैं या अरचित ही हैं? जीव या अजीव को किसी ने बनाया है क्या? नहीं! यदि जीव या अजीव को किसी ने पैदा किया हो तो वह पैदा करने वाला जीव है या अजीव? यदि उत्पन्न करने वाला जीव था, तो जीव का अस्तित्व (पूर्व में) था ही, यह निश्चित हो जाता है और अजीव तत्त्व था तो यह भी निर्णित हो जाता है। क्योंकि, अकेला जीव, अजीव को कैसे पैदा कर सकता है? दूसरी बात यह है कि जो जिसमें न हो, वह उसमें से कैसे पैदा हो सकता है? अर्थात् एक जीव था और उसने दूसरे जीवों को पैदा किया, यह भी संभव नहीं है।

कतिपय लोगों का कहना है कि, ‘ईश्वर ने सब जीवों को पैदा किया।तो सब जीवों को पैदा करने वाला ईश्वर देहधारी था या देहरहित? यदि देहधारी था तो यह कर्म से युक्त ही होना चाहिए और यदि देहधारी नहीं था, तो वह जगत् की रचना कर ही नहीं सकता। दूसरा प्रश्न यह होता है कि ईश्वर शुद्ध था या अशुद्ध? यदि अशुद्ध था, तो उसे ईश्वर नहीं कहा जा सकता। यदि वह शुद्ध था तो उसमें कर्तृत्व नहीं हो सकता। तीसरा प्रश्न यह होता है कि ईश्वर स्वतंत्र था या परतंत्र? यदि परतंत्र था तो उसमें ईश्वरत्व घटित नहीं हो सकता। यदि वह स्वतंत्र था तो उसे जीवों की रचना करने की आवश्यकता क्यों पडी? कदाचित् कोई कहे कि लीला (क्रीडा) के लिए बनाए, तो जिसमें राग या द्वेष न हो, उसमें लीला कैसे हो सकती है? लीला करने की इच्छा होना, राग है न? जिसमें राग का अंश भी न हो, उसे लीला करने की इच्छा कैसे हो सकती है? यदि उसमें राग माना जाए तो रागी को ईश्वर कैसे माना जा सकता है? अतः ईश्वर ने जीवों को पैदा किया, ऐसा कहने वालों को तत्त्व का सच्चा ज्ञान ही नहीं है। जीव तत्त्व और अजीव तत्त्व को किसी ने बनाया नहीं, अपितु ये दोनों तत्त्व अनादिकाल से हैं ही। क्योंकि, यदि ये नहीं थे तो उत्पन्न कैसे हुए? यह प्रश्न खडा होता है। यदि आपने तत्त्वज्ञान पाया हो तो तत्त्वों के स्वरूप का इस प्रकार विचार कर सकते हैं न? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 24 सितंबर 2012

तत्त्वज्ञान के अभिलाषी कम हो गए हैं!


आजकल व्याख्यान में जो श्रोताजन आते हैं, वे या तो लिए गए नियम का पालन करने अथवा गतानुगतिकता के कारण अथवा कथाएं सुनने के लिए आते हैं; परन्तु तत्त्वज्ञान के अभिलाषी के रूप में कितने श्रोता आते हैं? तत्त्वज्ञान के अभिलाषी श्रोता घट गए हैं, इसलिए व्याख्यान के पाट पर चाहे जो बैठ जाता है या चाहे जिसे बिठा दिया जाता है।

दो-चार ग्रंथ देख लिए, पांच-पचास कथाएं याद कर लीं, थोडे श्लोक कंठस्थ कर लिए, अखबारों में आने वाली घटनाएं पढ लीं और थोडे-बहुत उदाहरण ढूंढ लिए; इतना ज्ञान हो और थोडी वाचालता हो तो आज के श्रोताजन पाट पर बैठने वालों को ऐसा प्रमाण-पत्र दे देते हैं कि क्या महाराज का व्याख्यान है! कैसी अनुपम छटा है? श्लोकों का उच्चारण कितना सुंदर करते हैं? कथाओं में कैसा रस भर देते हैं? व्याख्यान तो गजब का है?’ परन्तु, क्या कोई तत्त्वज्ञान का भूखा श्रोता मिलता है जो यह पूछे कि महाराज! इसमें तत्त्वज्ञान क्या आया?’

श्रोताजन यदि तत्त्वज्ञान के अभिलाषी होते तो चाहे जो साधु पाट पर नहीं बैठता और पाट पर बैठने वाला तत्त्वज्ञानी बने बिना नहीं रहता। श्रोता तत्त्वज्ञान का अर्थी हो तो वह ऐसे प्रश्न पूछेगा, जिनका उत्तर देना अज्ञानी व्याख्याता को भारी पड जाए। जब आगम का वाचन चलता हो, तब जानकार श्रोता तो सूक्ष्म से सूक्ष्म विषयों के सम्बन्ध में भी प्रश्न करता है। प्रतिदिन का श्रोता बहुश्रुत है, ऐसा उसकी बात से मालूम होना चाहिए। वह प्रसंग से कह सकता है कि मैंने इतने आचार्य महाराज को और इतने आगमों को सुना है।उसे बहुत-सी बातें याद होती हैं, क्योंकि सुनी हुई बात पर वह प्रतिदिन विचार करता है। पहले के जमाने में जब अन्य लोग कथा करने बैठते तो वे देख लेते कि सभा में कोई आर्हत (जैन) है या नहीं? क्योंकि, उन्हें यह आशंका रहती थी कि वह कोई कठिन और बुद्धिमत्तापूर्ण प्रश्न कर बैठेगा। आर्हत तत्त्वज्ञ होते थे, अतः उनकी ऐसी प्रतिष्ठा थी।

जिसे ज्ञान ही नहीं, वह क्या प्रश्न करेगा? व्याख्यान किसलिए हैं? तत्त्वज्ञान कराने के लिए! तत्त्वज्ञान भी दूसरों के लिए नहीं, अपितु स्वयं के लिए भी है। कथा में भी तत्त्वज्ञान आता है। कोई भी धर्मकथा धर्म के हेतु बिना नहीं लिखी गई है। प्रत्येक कथा से धर्म का प्रयोजन पूर्ण हो, इसी रीति से उसे पढना या सुनना चाहिए। जहां श्रावक तत्त्वज्ञ होते हैं, वहां उन्मार्गदर्शक चुप हो जाते हैं। आजकल तो अधिकांश श्रावक तत्त्वज्ञान से शून्य बन गए हैं; इससे भी शासन की बहुत हानि हुई है। ज्ञान आत्मा का गुण है। इस गुण के अभाव में या इस गुण को प्राप्त करने के प्रति उपेक्षा के बावजूद मन में सुख की कल्पना आए तो विचार करिए कि सुख आएगा कहां से? -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 23 सितंबर 2012

तत्त्वज्ञान, सम्यक्त्व-प्राप्ति का साधन है


तत्त्वों के स्वरूप का ज्ञान भी सम्यक्त्व-प्राप्ति का साधन है। आत्मा में मिथ्यात्व मोहनीय का क्षयोपशम अर्थात् सम्यग्दर्शन का गुण निसर्ग से भी प्रकट होता है और अधिगम से भी। मिथ्यात्व मोहनीय का क्षयोपशमादि यदि निसर्ग से हो तो यह बात अलग है, अन्यथा मिथ्यात्व मोहनीय का क्षयोपशमादि प्रयत्नसाध्य वस्तु भी है। जीवादि तत्त्वों के स्वरूप का सच्चा ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न, सम्यग्दर्शन गुण को प्रकट करने का साधन है। जिन्हें सम्यग्दर्शन गुण की प्राप्ति हुई है, वे भी तत्त्वज्ञान द्वारा अपने सम्यग्दर्शन गुण की निर्मलता प्राप्त कर सकते हैं। तत्त्वों के स्वरूप का सच्चा और निश्चयात्मक ज्ञान विरति के परिणामों को पैदा करने में भी बहुत सहायक सिद्ध होता है।

ज्ञानी को सम्यक चारित्र की प्राप्ति भी सुलभ है और सम्यक चारित्र का निरतिचार पालन भी सुलभ है, इसीलिए हमारे यहां कहा गया है- पढमं नाणं तओ दया।दया को पैदा करने में और दया के पालन में तत्त्वज्ञान बहुत सहायक होता है। ऐसा जानने पर भी, हममें तत्त्वों के स्वरूप को जानने की इच्छा कितनी है? क्या आप ऐसा कह सकते हैं कि तत्त्वों के स्वरूप को जानने की हमने मेहनत की, परन्तु ज्ञानावरणीय कर्म के दोष से तत्त्वज्ञान न पा सके? समय आने पर जितनी समझने की शक्ति है, उतना समझने के लिए दिल खुला रखा है? या जो हम करते हैं, वह ठीक है, ऐसा हृदय में ठसा रखा है? आप केवल अज्ञानी ही हैं या अज्ञानी के साथ आग्रही भी हैं? जीवादि तत्त्वों के स्वरूप को आप नहीं जानते, परन्तु जीवादि तत्त्वों के स्वरूप को कोई समझाए तो बुद्धि के अनुसार उसे समझने की आपकी तैयारी है या नहीं?’ अन्य कामों में रस आए और तत्त्व की बात में रस न आए तो ज्ञान-प्राप्ति के दरवाजे बंद हैं, ऐसा ही मानना पडेगा न?

वर्तमान समय में धर्म के विषय में ऐसा वातावरण बनता जा रहा है कि अज्ञान में सुख और ज्ञान के प्रति उपेक्षा। तत्त्व की बात में उतरना, कई लोगों को प्रपंच जैसा लगता है। धर्म की कोई बात निकले और स्वयं न जानता हो तो तनिक भी क्षोभ के बिना ऐसा कह दिया जाता है कि- हमने तो दूर से ही नमस्कार कर रखा है, अतः खटपट नहीं। हम पूजा कर लेते हैं और कभी मन हो जाए तो जहां साधु-महाराज हो, वहां उपाश्रय में जा आते हैं और जो बनती है, वह क्रिया कर लते हैं। यदि इसमें गहरे उतरें तो हम अपना चैन ही गंवा बैठें। सब पापों के मूल मिथ्यात्वको टालने और सब धर्मों के आधारभूत सम्यक्त्वको पाने के लिए शास्त्र कहते हैं कि तत्त्वज्ञान प्राप्त करके, तत्त्वों के स्वरूप के विषय में सुनिश्चित मतिवाला बनना आवश्यक है’, जबकि आजकल के कतिपय मूर्ख लोग तत्त्वज्ञान की बात को समझने के प्रयास को अपना सर्वस्व खोने जैसा मानते हैं, यह कितना दुःखद है! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा