शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

मान-सम्मान की अभिलाषा मत रखो


संसार का यश तो तुच्छ वस्तु है। मिला तो भी क्या और न मिला तो भी क्या? हमें मान-सम्मान की अभिलाषा ही नहीं रखनी चाहिए। ऐसी तुच्छ वस्तुओं के पीछे आत्मा बर्बाद न हो जाए, इसके लिए इस जीवन में केवल जिनाज्ञा की आराधना अधिकतम करने के लक्ष्य वाला बनना चाहिए। हम स्वयं शुद्ध हैं अथवा नहीं, यह अवश्य देखना चाहिए। हम स्वयं सन्मार्ग पर हैं अथवा नहीं, उसका ध्यान रखने में तनिक भी उपेक्षा नहीं आने देनी चाहिए। हम सन्मार्ग पर हों, शुद्ध रहने के लिए प्रयत्नशील हों, केवल शासन-सेवा के आशय से ही आज्ञानुसार कार्य कर रहे हों, फिर भी गालियां सुननी पडे, कष्ट सहने पडें, तो उसका सत्कार करें। परिणाम में एकांत लाभ ही होता है।

भक्ष्याभक्ष्य के एवं शील-मर्यादा आदि के उत्तम आचार-विचार दिन-प्रतिदिन घिसते जा रहे हैं। अभक्ष्य व अनंत काय का उपयोग अधिक होता जा रहा है। अभक्ष्य एवं अनंत काय का उपयोग जैन कुलों में नहीं होना चाहिए, ऐसी-ऐसी बातें कोई करे तो उसकी भी मजाक की जाती है। शील-मर्यादा-विषयक उत्तम आचार छोडने के विरूद्ध हित शिक्षा दी जाए, तो उन्हें यह कहने में भी लज्जा नहीं आती कि इन्हें जमाने का होंश नहीं है। समस्त श्रावक-कुल ऐसे हो गए हों, यह बात नहीं है। कतिपय श्रावक-कुलों में अभी भी उत्तम आचार-विचार कायम हैं, परन्तु ऐसा अत्यंत अल्प प्रमाण में है। जडवाद की हवा का वेग इतने प्रमाण में है कि यदि उसके समक्ष सचेत न रह सके तो आत्महित का नाश हुए बिना नहीं रहेगा।

मुझे तो जीवन में अपनी आत्मा का कल्याण करना है और कल्याण करने का एकमात्र मार्ग अनंत उपकारी श्री जिनेश्वर देवों की आज्ञा की आराधना करना है।हृदय में ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए और आज्ञा की आराधना में मन-वचन-काया को जोडने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। यह दशा होगी तो कर्तव्य से च्युत नहीं होंगे और किसी भी पौद्गलिक लालसा के अधीन नहीं बनेंगे। भक्ष्याभक्ष्य के सेवन से बचेंगे, आचार, विचार और व्यवहार शासन के अनुरूप होगा।

इतनी सावधानी रखने पर भी किसी तीव्र पापोदय से आत्मा का पतन हो भी जाए, तो भी कालांतर में उस आत्मा का उत्थान हुए बिना नहीं रहता, उस आत्मा का मोक्ष निश्चित हो जाता है और जो आराधना की हो वह तो निष्फल जाती ही नहीं, अपितु कल्याण-कामी हो। इसलिए यही ध्येय रखना चाहिए और ऐसे प्रयत्न करने चाहिए, जिससे सुख पूर्वक आराधना हो सके। उसके लिए पतन के संयोगों से बचने का प्रयत्न भी लगातार रखना चाहिए। पौद्गलिक लालसा से यथासंभव बचते रहना चाहिए। यश की कामना, मान-सम्मान प्राप्त करने की इच्छा भी पौद्गलिक लालसा है। गीतार्थ महात्मा इस प्रकार की लालसा से परे रहेंगे।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 30 अगस्त 2012

कुलीन संस्कारों को बचाने की जरूरत


आज श्रावक-कुल जैसे उत्तम कुल के संस्कार कितने अधिक नष्ट हो गए हैं? घर के मुखिये को घर का कोई भी व्यक्ति आराधना से वंचित रह न जाए उसकी चिन्ता हो, ऐसे घर कितने हैं? आपको अपना पुत्र इज्जतदार, पेढीदार या धनवान बनाने की जितनी चिन्ता है, उतनी ही चिन्ता वह धर्म का आराधक बने इस बात की है क्या? पुत्र पेढीदार अथवा धनवान न बन पाए, उसमें अधिक हानि है या वह धर्महीन बनकर इस मंहगे जीवन को नष्ट कर दुर्गति के कर्मों का बंध करे, उसमें अधिक हानि है?

अपनी संतानों को सांसारिक कार्यों में कुशल बनाने में आप जितने उत्सुक हैं, उतनी उत्सुकता उन्हें धर्मात्मा बनाने में है? पुत्र पूजा, सामायिक आदि न करे तो उसके लिए कितना खटकता है और विद्यालय अथवा दुकान पर न जाए तो उसके लिए कितना खटकता है? इन दोनों के मध्य का अंतर तो निकाल कर देखें। सचमुच, आज पारस्परिक सच्ची कल्याण भावना लुप्त होती जा रही है। आज तो प्रायः यह दशा है कि पिता, पुत्र, माता, भगिनी आदि संबंधी एवं स्नेही परस्पर आत्मा के शत्रु रूप बने हैं।

संबंधी अथवा स्नेही के आत्मा की क्या दशा होगी, यहां से मृत्यु के पश्चात उनकी क्या गति होगी, उन्हें धर्म पुनः कब प्राप्त होगा और कब वह जन्म-मरण आदि के इन अनन्त काल से भोगे जाते दुःखों से मुक्त होगा? इस प्रकार के वास्तविक कल्याणकारी विचार करने का भाव तो आज प्रायः नष्ट हो गया है। मानो पर-भव है ही नहीं, पुण्य-पाप है ही नहीं, इस प्रकार आत्मकल्याण की अवहेलना करके आज अनेक व्यक्ति वर्तन कर रहे हैं। इस दशा से सुकुल भी मुक्त नहीं रह सके। अतः सुकुलों में भी धार्मिक आत्मा उत्पन्न न हो अथवा धर्म में तत्पर बने आत्मा भी कुसंग से धर्महीन बन जाए तो कोई आश्चर्य नहीं है।

श्रावक जैसे उत्तम कुल में तो परस्पर कल्याण-भावना के झरने बहते रहने चाहिए। जो कोई पुण्यात्मा श्रावक-कुल को प्राप्त करे, वह इस जीवन में ऐसा कर जाए कि जिससे उसका संसार अत्यंत परिमित बन जाए, ऐसा श्रावक-कुल का वातावरण होना चाहिए। श्रावक-कुल में रहे हुए नौकर, इतर जाति के होते हुए भी धर्म में रुचि वाले बन जाएं, ऐसे उत्तम कोटि के आचार एवं विचार श्रावक-कुलों में प्रवर्तमान होने चाहिए।

श्रावकों के घर के पशुओं पर भी उत्तम छाँया पडे, ऐसा श्रेष्ठ रहन-सहन उत्तम श्रावकों का होना चाहिए। इसके साथ जब हम आज के श्रावक-कुलों की दशा का विचार करते हैं, तब स्वाभाविक ग्लानि उत्पन्न हुए बिना नहीं रहती। उत्तम गिने जाते श्रावक परिवारों में भी आज बिगाडा प्रविष्ट होता जा रहा है। नामांकित कुलों में भी आज धर्म-संस्कार नष्ट होता जा रहा है। खाने-पीने की, पहनने-ओढने की और घुमने-फिरने आदि की स्वच्छंदता बढती जा रही है, यह चिंता का विषय है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 29 अगस्त 2012

सत्य की गवेषणा करें!


सत्य की गवेषणा कब हो सकती है? क्या आपको आपकी दशा से प्रतीत होता है कि आप सत्य के अर्थी हैं’? संसार के प्रति रोष और मोक्ष के प्रति गाढ राग रखे बिना क्या पारमार्थिक सत्य प्राप्त हो सकता है? नहीं प्राप्त हो सकता है, क्योंकि जो अर्थ एवं काम के रसिक हैं, जो अर्थ एवं काम में अपना कल्याण मानते हैं और इसके लिए धर्म को भी ताक में रख देते हैं, जो संसार की सुरक्षा और वृद्धि के लिए ही उत्सुक हैं, जो अवकाश मिलने पर जैसे भी देव-गुरु मिल जाएं उन गुरु की इच्छानुसार सेवा करने से अधिक कुछ करने के लिए तत्पर नहीं हैं, वे सत्य की गवेषणा नहीं कर सकते हैं।

सत्य की गवेषणा करनी हो तो पुद्गल की ओर से दृष्टि हटनी चाहिए और आत्म-कल्याण की ओर दृष्टि जमनी चाहिए। आत्म-कल्याण करना है, ऐसा आपका ध्येय बन जाना चाहिए और उसके लिए मोक्षार्थी बनना चाहिए। आप यदि मोक्षार्थी बन जाओ तो आपके लिए सत्य की गवेषणा अत्यंत सरल हो जाए। आत्मा को डूबने से बचाए, पुद्गल की ओर जाने से रोके और आत्मा के गुणों को विकसित करने की प्रेरणा दे, ऐसे चारित्रवान सुगुरुओं की शरण प्राप्त कर आत्मा इस काल में भी मोक्षमार्ग की शक्ति अनुसार आराधना कर सकते हैं। ऐसे चारित्रवान सुगुरु अल्प मात्रा में ही सही, लेकिन आज भी हैं और इस काल के अंत तक रहेंगे, बात सिर्फ उन्हें पहचानने की है और कुगुरुओं से बचने की है।

केवल काल की महिमा यही है कि वंचक भी अधिक उत्पन्न होंगे। जिस शासन के नाम पर मौज करते हैं, जिस शासन के नाम पर मान-सम्मान का उपभोग करते हैं, जिस शासन के नाम पर लोगों में पूजे जाते हैं और जिस शासन के नाम पर संसार में गुरु बने घूमते हैं; उसी शासन के लिए वे वंचक शत्रु का कार्य करेंगे। जिनकी ओर से शासन की प्रभावना की आशा कर सकते हैं, वे ही शासन की बदनामी करेंगे और शासन की बदनामी के कारणभूत होते हुए भी, शासन के प्रति वफादार निर्दोष एवं पवित्र मुनियों पर झूठे कलंक लगाएंगे।

यद्यपि शासन समर्पित साधुओं को वस्तुतः व्यक्तिगत आक्रमणों की परवाह नहीं होती, परन्तु उन वंचक वेशधारियों के पाप से कतिपय आत्मा सन्मार्ग से च्युत हो जाएंगे और वे उन्मार्ग पर बढ जाएंगे। ऐसे समय में कल्याणार्थियों को तो अधिकाधिक सावधान होना चाहिए। अशक्ति के कारण आराधना कम-अधिक हो उसकी वैसी चिन्ता नहीं है, परन्तु आराधना के मार्ग से भ्रष्ट न हो जाए, इसकी तो पूर्ण सावधानी रखनी चाहिए। जहां तक हो सके वहां तक आराधना अधिक करने की भावना तो सम्यग्दृष्टि की होती ही है, परन्तु किसी वंचक के जाल में फंसकर मार्ग न चूक जाए, यह विशेष संभालने योग्य है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

कोतवाल के वेश में चोर


आज वेशधारी वंचक लाखों रुपयों का व्यय उन्मार्ग की पुष्टि में करवा रहे हैं। अधर्म में भी धर्म मनवा कर वेशधारी वंचक उदार एवं विवेकी श्रावकों के धन का भी पानी करवा रहे हैं। जो क्षेत्र आज अभावग्रस्त हैं और जिन सुक्षेत्रों की पुष्टि एवं वृद्धि के लिए आज बहुत कुछ करने की जरूरत है, उन सुक्षेत्रों की ओर वेशधारी वंचक उदार श्रावकों के हृदय में अरुचि उत्पन्न कर रहे हैं और अपनी ख्याति आदि के लिए धर्म के नाम पर कितना ही धन व्यय करवा रहे हैं। इस प्रकार भी श्री जैन शासन पर आक्रमण करने वाले पुष्ट बनें और बढें, उन वेशधारी वंचकों की जय-जयकार होती रहे, ऐसा भी आज बहुत-बहुत हो रहा है। यह कतई उचित नहीं है। धन का व्यय करने वाला यदि धर्म के, शासन के लिए समर्पण की भावना से अनुप्रेरित होकर कर रहा है तो यह उसकी भावनाओं का शोषण है, इसमें शासन की हानि है।

सोचो कि वेशधारी वंचक किस प्रकार इस शासन को हानि पहुंचाने वाले हैं और आराधना के कार्य में विक्षेप डालने वाले हैं। भगवान की अनुपस्थिति में रक्षक तो वे ही हैं न? वे रक्षक मिटकर भक्षक बनें तब भयानक अनर्थ मचेगा, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। ऐसा समय भी आ जाए कि सुसाधुओं को भीतर ही भीतर जलते रहना पडे। शासन का भयानक अहित हो रहा हो, उसे देख तो सके नहीं और वेशधारी वंचकों ने वातावरण ऐसा बना दिया हो कि बोलना भी कठिन हो जाए। उस दुःख के कारण अन्तर में ही जलता रहना पडे अथवा अन्य कुछ हो?

सहस्रावधानी, समर्थ महापुरुष, आचार्य भगवान् श्री मुनिसुन्दरसूरिश्वर जी महाराजा को कहना पडा है कि कोतवाल के वेश में बहुत चोर घूमते हैं, वहां क्या हो? राजा-विहिन राज्य जैसी इस शासन की दशा हो गई है। भगवान श्री महावीर परमात्मा को सम्बाधित करके उन महापुरुषों ने श्री अध्यात्म-कल्पद्रुम के देव-गुरु-धर्मशुद्धि नामक बारहवें अधिकार में बताया है कि, ‘हे वीर! मुक्ति-मार्ग के वाहक के रूप में आप द्वारा स्थापित शासन में, इस कलियुग में बहुत लुटेरे उत्पन्न हुए हैं, जो यति नाम धारण करके भी भोले मनुष्यों की पुण्य रूपी लक्ष्मी को लूट रहे हैं। राजा रहित राज्य में क्या कोतवाल चोर नहीं होते हैं?’

ऐसे शब्दों का उच्चारण कब हुआ होगा? शासन में साधु कोतवालों के स्थान पर हैं, परन्तु उन कोतवालों में से बहुत से चोर बन गए हैं। और जहां कोतवालों के रूप में नियुक्त व्यक्तियों में से ही अधिकांश व्यक्ति चोर बन जाएं तो फिर शेष बचे कुछ प्रामाणिक, वफादार, सत्वशील कोतवालों को भी घबराहट हो जाए तो आश्चर्य की बात नहीं है। कोतवालों के वेश में चोर बने साधुओं से शासन श्रेष्ठ कैसे रह सकता है? जो पुण्यात्मा चकोर बनकर विराधना से बचेंगे और आराधना में तत्पर बनेंगे, वे इस काल में भी अपना कल्याण सर्वोत्तम प्रकार से कर सकेंगे, बाकी तो जिसका जैसा भाग्य! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 27 अगस्त 2012

कल्पतरु एवं कंटकतरु


पंच परमेष्ठियों में आचार्य तीसरे पद पर, उपाध्याय चौथे और साधु पांचवें पद पर आराध्य हैं। आचार्य आदि आराधक भी हैं और आराध्य भी हैं। उस-उस पद की उनमें जितनी-जितनी योग्यता हो, उतने-उतने अंश में वे आराध्य हैं। आचार्य आदि की आराधना का आधार भी वे स्वयं जिस पद पर स्थित हैं, उस पद के वे कितने वफादार हैं, उस पर निर्भर है। श्री पंचपरमेष्ठी पद वेश अथवा ग्राह्य आडम्बर के ही कारण नहीं है, अपितु मुख्यतः गुणों के आधार पर है। श्री आचार्य पद, श्री उपाध्याय पद अथवा श्री साधु पद, ऐसे पद हैं कि उन पदों पर गिने जाने वाली आत्माओं की जोखिम बहुत अधिक बढ जाती है। वे तो शासन के वर्तमान संसार में आधारभूत भी गिने जाते हैं।

प्रत्येक आचार्य, उपाध्याय एवं साधु को अच्छी तरह ध्यान में रखना चाहिए कि हम अपने-अपने पद को अधिक उज्ज्वल न कर सकते हों तो भी कम से कम अपने कारण उस पद पर लांछन तो नहीं ही लगना चाहिए। उस पद पर गिना जाना, उस पद पर पूजा जाना और उस पद के उत्तरदायित्व से विमुख रहना, इसका अर्थ तो यही होता है कि स्वयं डूबना और अपने विश्वास में जो कोई हो उसे डुबाना।शक्ति-सामग्री आदि की जैसी चाहिए वैसी अनुकूलता न हो तो आराधना कम कर सकते हैं, अवसरोचित समस्त क्रिया न भी कर सकें, शासन के लिए जो कुछ करने योग्य हो, उसमें थोडा कर सकें अथवा न भी कर सकें, परन्तु हृदय में से आराधक-भाव मिटना नहीं चाहिए और विराधक-भाव आना नहीं चाहिए। शक्ति-सामग्री के अभाव में आवश्यक आराधना कदाचित न भी हो सके, फिर भी आत्मा में यदि आराधक-भाव हो तो उससे भी आत्मा को बहुत लाभ होता है, और आराधना की ग्राह्य क्रिया चल रही हो तथा विराधना की दिखती क्रिया न भी करते हों, फिर भी यदि आत्मा में विराधक-भाव आ जाए तो वह आत्मा को बर्बाद कर डालता है।

जिन आज्ञा की आराधना ही प्रत्येक आचार्य, उपाध्याय एवं साधु का ध्येय होना चाहिए और वह ध्येय हो तो ही वे स्व-पर का उपकार कर सकते हैं और शासन के प्रभाव का विस्तार कर सकते हैं। जिस आचार्य, उपाध्याय एवं साधु का आज्ञा की आराधना ही ध्येय होता है एवं जिनकी प्रवृत्ति इस ध्येय की साधक होती है, वे आचार्य, उपाध्याय और साधु इस शासन के कल्पतरु हैं। परन्तु, जिन आचार्य, उपाध्याय एवं साधु का ध्येय तथा प्रवृत्ति इससे विपरीत होती है, वे इस शासन में कंटक-तरु हैं। आचार्य श्री आचार्य पद से विपरीत व्यवहार करें, उपाध्याय श्री अपने पद से विपरीत व्यवहार करें और साधु अपने पद से विपरीत व्यवहार करें, तो वे देखने में आचार्य, उपाध्याय अथवा साधु होने पर भी शासन को कुरेद कर खाने वाले कीडों का ही कार्य करते हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 26 अगस्त 2012

सांसारिक सुख की भावना से धर्म न करें


इस संसार में पुरुषार्थ चार हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इन चार पुरुषार्थों में सबसे पहला स्थान धर्म का है। धर्म से ही अर्थ, काम या मोक्ष की प्राप्ति होती है। यों करने जैसा पुरुषार्थ एक ही है, धर्म। सवाल यह है कि आप धर्म किस अपेक्षा से कर रहे हैं? अर्थ की प्राप्ति के लिए, काम की प्राप्ति के लिए या मोक्ष प्राप्ति के लिए?

कदाचित आप धर्म नहीं कर रहे हैं, तब आपको जो अर्थ और काम की शक्ति प्राप्त है, वह पूर्व जन्मों के अर्जित पुण्य के फलस्वरूप है और उसी अर्थ व काम को बढाने के लिए ही पुरुषार्थ है तो उसकी प्राप्ति की सीमा वहीं तक है, जहां तक आपका पूर्व कृत पुण्य शेष है, जिस दिन आपका पुण्य का खाता पूरा हो गया, सारा खेल खत्म और फिर महादुःख का प्रारम्भ तय है। लेकिन, यदि आप धर्म भी साथ-साथ कर रहे हैं, तब यह सवाल खडा होगा कि यह धर्म आप किस अपेक्षा से कर रहे हैं? अर्थ, काम, मोक्ष की अपेक्षा से अथवा निर्पेक्ष भाव से?

यहां शास्त्रकार कहते हैं कि अर्थ, काम आदि लौकिक सुखों की प्राप्ति के लिए या देवगति और स्वर्गीय सुख प्राप्ति की कामना से किए गए धर्म से भी पुण्य तो अर्जित होता है, लेकिन यह पुण्य पापानुबंधी पुण्य है। इस पापानुबंधी पुण्य से कदाचित् आपको अर्थ, काम या देवगति तो प्राप्त हो जाएंगे, लेकिन जुगनू की चमक की तरह। पहले चमक और फिर अंधेरा ही अंधेरा। पहले सुखाभास और फिर महादुःख! यह विष मिश्रित दूध की तरह है, जिसमें मिश्री और बादाम आदि हैं और पीने में स्वादिष्ट लगता है, किन्तु विष का प्रभाव होते ही महावेदना और मौत होती है।

अर्थ-काम अनर्थकारी हैं, अर्थ-काम के लिए धर्म नहीं होता, धर्म तो मोक्ष का साधन है। सच्चा साध्य केवल मोक्ष है। मोक्ष की भावना से या निराशंस भाव से धर्म करने का ही ज्ञानी विधान करते हैं। पढ-लिख कर पोपट बनना भिन्न बात है और उसके भीतर के गूढ रहस्य को समझने की शक्ति आना भिन्न बात है।

जिस धर्म को करने से अक्षयसुख, अक्षयशान्ति और अक्षयआनंद की प्राप्ति संभव है, उसी धर्म से तुच्छ संसारी वैभव की कामना करना तो हीन मनोवृत्ति ही है। मोक्ष हेतु निराशंस-भाव से किए गए धर्म के योग से पुण्यानुबंधी पुण्य होता है और इसके प्रभाव से मोक्ष प्राप्ति के पूर्व उत्तम प्रकार की सामग्री तो वैसे ही प्राप्त हो जाए, यह बात भिन्न है। लेकिन, मोक्ष प्राप्ति की लालसा वाला आत्मा ऐसी भौतिक सुख-सामग्री में रमता नहीं है।

संसार में सर्वोत्तम प्रकार की विषय-सामग्री धर्मात्मा व्यक्ति को ही प्राप्त होती है, परन्तु इस बात का रहस्य समझने के लिए आत्मा में विवेक चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 25 अगस्त 2012

शिक्षक विशिष्ट मजदूर बन गया है!


भाषा, व्याकरण और गणित सिखाना, यह वस्तुतः विद्यादान है ही नहीं। यह तो विद्या प्राप्त करने के साधन मात्र हैं। भाषाज्ञान आदि से लिखना-पढना सीख लेने के बाद आखिर करना क्या है? हमारे पूर्वजों ने जो कुछ भी लिखा है, उसका अभ्यास करने की क्षमता सिद्ध करनी है। उन ग्रंथों के रहस्यों को सोचने-समझने की विचार-शक्ति अर्जित करनी है।

दरअसल शिक्षक का वास्तविक कार्य तो यह है कि यह भाषा आदि सब सिखाने के साथ बालक को समझदार बनाए और उसमें ऐसी क्षमता विकसित करे कि वह अपने आप संस्कारी बने। माता-पिता ने यदि योग्य संस्कारों का सिंचन किया होता तो शिक्षक का आधा कार्य पूर्ण हो गया होता। फिर शिक्षक को केवल माता-पिता द्वारा प्रदत्त संस्कारों को विकसित करने की ही जिम्मेदारी रहती।

भाषाज्ञान सिखाना यह वस्तुतः ज्ञान-दान नहीं, अपितु ज्ञान के साधन का दान है। सद्गुण प्राप्ति का और अवगुण त्याग का शिक्षण, यही शिक्षा का साध्य है। परन्तु, आज तो प्रायः जैसी माता-पिता की हालत है, वैसी शिक्षक की भी हालत है। सच्चा शिक्षक मात्र किताबी ज्ञान तक ही सीमित नहीं होता। सच्चा शिक्षक तो विद्यार्थी में सुसंस्कारों का सिंचन करता है। मात्र किताबी ज्ञान तक सीमित रहने वाला और विद्यार्थियों के सुसंस्कारों का लक्ष्य नहीं रखने वाला शिक्षक, शिक्षक नहीं, अपितु एक विशिष्ट मजदूर मात्र है।

यदि यहां मेरी दृष्टि के समक्ष मात्र कॉलेज के प्रोफेसर होते तो मैं यह नहीं कहता, क्योंकि कॉलेज में विद्यार्थी निर्मित होकर आता है। वहां विद्यार्थी यदि अच्छा हो और अध्ययन, अध्यापन रुचिकर हो तो वह आगे बढेगा ही। लेकिन, आज कॉलेजों में जाकर देखो तो आपको दिखेगा कि कक्षाओं में प्रोफेसर का मान-सम्मान ही बच नहीं पाता।

कितने तो कहते हैं कि हमारी इज्जत नहीं ले लेते वही उपकार है। क्लास चलते हैं, प्रोफेसर बोलते रहते हैं और विद्यार्थियों की मौजमस्ती भी चालू रहती है। आने वाले विद्यार्थियों को पूर्णतः सुसंस्कारित करने की जिम्मेदारी प्रोफेसर की है, ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वे तो स्कूल में निर्मित होकर कॉलेज में आए हैं। हालांकि आजकल के प्रोफेसर भी पैसा बनाने की तरफ ही ज्यादा ध्यान देते हैं, बच्चों में योग्यता विकसित करने की तरफ उनका ध्यान कम ही होता है, इसके लिए वे कई तरह के गलत हथकण्डे भी करते रहते हैं, यह उचित नहीं है।

हमारे सोच को और हमारी बेकार हो चुकी समग्र शिक्षा-व्यवस्था को आज बदलने की जरूरत है। सब अपना कर्तव्य पालन करें और आने वाले कल को सुसंस्कारी बनाएं, यही शुभेच्छा है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

शास्त्रों में मस्त, रहता है स्वस्थ


एक बादशाह था। वह बडा ही दयालु और परोपकारी था। सभी का आदर करना और विनम्रतापूर्ण व्यवहार करना उसके स्वभाव का स्थायी अंग था। उसकी अपने राज्य के एक साधु के प्रति बडी श्रद्धा-भक्ति थी। वह साधु अपने शिष्यों के साथ राजधानी से दूर किसी दूसरे नगर में बिराजमान था। वहां कोई अच्छा इलाज करने वाला नहीं था।

एक दिन बादशाह ने सोचा कि यदि उन साधु के उपाश्रय में कोई बीमार हो जाए तो बडी परेशानी होगी, इसलिए उसने अपने शाही हकीम से कहा कि तुम उस नगर में जाकर रहो और यदि साधु या उनका कोई शिष्य बीमार पड जाए तो समय पर उनका उपचार करना। हकीम वहां पहुंच गया।

दिन पर दिन बीतते गए, किन्तु साधु के उपाश्रय से कोई भी हकीम के पास उपचार के लिए नहीं पहुंचा। हकीम खाली बैठे-बैठे परेशान हो गया। जब काफी वक्त गुजर गया, दिन-सप्ताह-महीने बीत गए तो वह साधु के पास गया। उसने देखा, यहां तो हर कोई शास्त्राभ्यास में और अपनी-अपनी क्रिया में व्यस्त है, सभी के आभामण्डल खिले हुए हैं और चेहरे तेजोमय हैं। वह पहले तो सहम गया, लेकिन फिर भी चूँकि राजा ने उसे उपचार के लिए भेजा था तो उसने साहस कर राजा के गुरु से पूछा- महाराज! मुझे बादशाह ने आपके शिष्यों का उपचार करने के लिए भेजा है, किन्तु इतने महीनों में कोई भी मेरे पास नहीं आया। इसका कारण क्या है?’

साधु ने जवाब दिया- हकीमजी! मेरे शिष्य दिन-रात अप्रमत्त भाव में शास्त्राभ्यास और स्वाध्याय में ही व्यस्त रहते हैं, उन्हें शास्त्रों के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं। उनकी आदत है कि जब तक उन्हें जोर की भूख नहीं लगती, वे खाना नहीं खाते। जब खाते हैं, तब थोडी भूख रहते खाना छोड देते हैं।

हकीम समझ गया कि ऐसी जगह रोग नहीं आ सकता। उसी समय उसने वह स्थान छोड दिया।

कथा का सार यह है कि स्वस्थ रहने के लिए यह जरूरी है कि व्यक्ति अपने लक्ष्य के प्रति पूरी तरह सर्वतोभावेन समर्पित रहे, दिन-रात उसका चिंतन आत्म-केंद्रित रहे। शास्त्राभ्यास और स्वाध्याय में मस्त और व्यस्त रहे, कम व सुपाच्य भोजन किया जाए। इससे इन्द्रिय निग्रह को बल मिलता है, जो स्वस्थ और सुखी जीवन के लिए आवश्यक है।

प्रमाद महारोग है। प्रमाद पांच हैं- मद्य, विषय, कषाय, विकथा और निद्रा। विषय और कषाय यह भी प्रमाद हैं। इस रूप में जो प्रमाद के अधीन रहता है, वह बीमार रहता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

सच्चा शिक्षण


मौज-शौक के खर्चे से ऐसा पाप बंधता है कि भवांतर में भीख मांगने पर भी पैसे नहीं मिलते। अनीति लाभान्तराय का बंध कराती है और मौज-शौक भोगान्तराय का बंध कराता है। यह सब आज आपको नहीं सीखना है। सीखोगे तो आपके मौज-शौक में बाधा पडेगी और दुर्गति में घूमने जाने के द्वार बंद हो जाएंगे। आपने आपकी संतानों को जिस प्रकार पढाया है, उसको देखते हुए यह नहीं माना जा सकता कि आप में सम्यग्दर्शन है। आपने उन्हें ऐसा शिक्षण दिलाया है कि वे आपको पाठ पढावें, यहां तक तो ठीक, परन्तु आपको ही उठालें तो कोई अचरज की बात नहीं।

शिक्षण किसे कहा जाए? इसकी समझ आज न तो मां-बाप को है और न शिक्षकों को। और ये सब शिक्षण देने निकले हैं। ऐसे शिक्षण से तो आज पागलों की पैदावार बढ रही है। सुख में विराग और दुःख में समाधि, यह भगवान अरिहंत देवों द्वारा जगत को दिया गया ऊॅंचे से ऊॅंचा शिक्षण है। ऐसे शिक्षण में प्रायः संघ के अधिकांश लोगों की रुचि नहीं है, इससे बहुत विकृतियां हो रही हैं।

आप अपनी संतानों को स्वार्थ के लिए ही पढाते हैं। शिक्षण देकर भी आप अपकार कर रहे हैं। ज्ञान का दान करके भी अज्ञानी बनाने का काम आपने शुरू किया है। ये कमाकर लावें, यही आप चाहते हैं, परन्तु असंतोष की आग में ये जल मरें, इसकी आपको चिन्ता नहीं है। संतान को कमाने के लिए पढावे, वह जैन नहीं। पेट के लिए विद्या पढाना यह पाप है। आज तो सा विद्या या विमुक्तयेका बोर्ड लगाकर ठगने का धंधा किया जाता है, क्योंकि आज के शिक्षण में मुक्ति की तो कोई बात होती ही नहीं। सा विद्या या विमुक्तयेका अर्थ तो यह कि जो विद्या मुक्ति का बोध दे, लेकिन आज के स्कूल-कॉलेजों में मुक्ति के शिक्षण का स्थान तो स्वच्छंदता और विनाशक-विज्ञान ने ले लिया है। सारी पीढी बिगड रही है, यह आप आँखों से देख रहे हैं, फिर भी हम से पूछते हैं कि शिक्षण में खराबी क्या है?’, यह क्या अभी निर्णय करना शेष रह गया है? खराबी न हो तो संतान बिगड गई है’, ऐसी बूम क्यों मारते हो?

जीवन का निर्माण बाल्यकाल से प्रारम्भ हो जाता है। बच्चों को हृदय की पवित्रता का मूल्य उतना नहीं बताया जाता, जितना दूसरी चीजों का बताया जाता है। आज शिक्षा में नैतिक अवमूल्यन की समस्या पर ध्यान नहीं दिया जा रहा। हृदय की पवित्रता केवल साधुओं के लिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, शासकों और परिवार के सदस्यों के लिए भी बहुत जरूरी है। साधारण व्यक्ति प्रवाह के पीछे चलता है। यथा राजा तथा प्रजाकहावत ही नहीं, यथार्थ है। जब एक व्यक्ति किसी भी उचित-अनुचित ढंग से सत्ता प्राप्त कर तथाकथित बडा आदमी बन जाता है, तब दूसरा आदमी भी सोचता है कि भ्रष्ट तरीके से पैसा कमाकर बडा आदमी बना जा सकता है। राजनीति जीवन का अंग हो गई है, लेकिन यह जीवन कदापि नहीं है। सत्ता पर जब धर्म का अंकुश नहीं रहता, तो वह निरंकुश हो जाती है। सत्ता राष्ट्र की हो या परिवार की, उस पर से जब-जब धर्म का अंकुश हटता है, तब-तब वह उन्मादी हो जाती है। प्रवाह को वही मोड सकता है, जो असाधारण हो, जो सत्ता और अर्थ प्राप्ति के लिए भ्रष्ट उपायों का सहारा न ले।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 22 अगस्त 2012

असत्य-अधर्म का विरोध करना ही चाहिए


यदि सत्य-धर्म का पक्ष रखना, असत्य-अधर्म का विरोध करना झगडा करना माना जाता है तो ऐसा झगडालू होना उचित है, साधु धर्म का तो यह प्रमुख दायित्त्व है। जिस साधु में अपने सत्य-धर्म के प्रति इतनी-सी निष्ठा भी न हो, वह पंच महाव्रतों का पालन किस प्रकार कर सकता है? यदि न्याय-नीति की बात करना, धर्म की रक्षा के लिए अडजाना, झगडा करना है तो ऐसा झगडालू होना, अपने सत्य-धर्म का पालन करना है।

कहने वाले प्रभु महावीर को भी तो झगडालू कहते थे। श्री जिन आज्ञा का पालन करना और जिन आज्ञा विरोधी गतिविधियों पर अंकुश के लिए संघर्ष करना झगडा करना है तो ऐसे झगडालू होने पर हमें गर्व है, संतोष है, क्योंकि ऐसा करके ही साधु अपने साधुपन को बचा पाता है। ऐसी परिस्थिति में मूकदर्शक रहना, साधुपन पर दोष लगाना है। महाव्रतों का खण्डन करने जैसा है। एक महाव्रत टूटता है तो पांचों महाव्रत टूटते हैं।

आजकल सर्व धर्म समभाव और सर्व धर्म ममभाव की बातें जोरशोर से चल रही है। यह विषय आजकल एक तरह का फैशन हो गया है, वाचाल लोगों के लिए वाणी-विलास का एक माध्यम बन गया है, जहां वे भोलीभाली, भावुक जनता को बरगला सकते हैं। लेकिन, इस युग में भी सोने को सोना और पीतल को पीतल ही कहा जाता है। किन्तु जब धर्म को धर्म और अधर्म को अधर्म कहते हैं तो झगडाखोरमाने जाते हैं। कैसी विचित्र और विडम्बनापूर्ण हालत है? पर साधु को इसकी कोई चिन्ता नहीं होनी चाहिए। सत्य के लिए मरना पडे तो मंजूर है, किन्तु झूठ के आगे समर्पण तो किसी कीमत पर स्वीकार्य नहीं ही है। ऐसे प्रसंगों पर सहनशीलताधारण करने वाला सहनशीलनहीं है, अपितु काम को बिगाडने वाला है, कायर है। यह सहनशीलता का गलत अभिप्राय है। भगवान का संघ, भगवान के सिद्धान्तों की रक्षा के लिए लडना पडे तो लडता है, शेष दुनिया की किसी चीज के लिए वह नहीं लडता। लडते समय भी सामने वाले के हित की चिन्ता तो उसके हृदय में रही हुई होती है। क्योंकि, यह तो धर्मयुद्ध है। ये सिद्धान्त तो जगत मात्र का कल्याण करने वाले हैं। इन सिद्धान्तों का हनन होता है तो उसे रोकने के लिए कषाय करने पडते हैं। दुनिया में कहावत है कि, ‘लाख मरे, परन्तु लाखों का पालनहार न मरे

जब धर्म के ऊपर संकट के बादल मंडरा रहे हों, देव-गुरु-धर्म पर हमला हो, अन्याय हो; तब उसका प्रतिकार न करना मानवता के लिए घोर कलंक है, श्रावकत्व पर कलंक है, समाज पर कलंक है। सच्चा धर्मवीर ऐसे अन्याय के विरूद्ध अलख जगाता है। वह न तो स्वयं अन्याय करता है और न अपने सामने होने वाले अन्याय को देख सकता है। वह सदैव अन्याय और अनीति के प्रतिकार के लिए कटिबद्ध रहता है। अन्याय का प्रतिकार करने के लिए देव-गुरु-धर्म-समाज-संस्कृति के चरणों में वह अपने प्राणों को हंसते-हंसते बलिदान कर देता है। असत्य-अधर्म का साधु को विरोध करना ही चाहिए। झूठी बातों का विरोध किए बिना सच्चे साधु को चैन नहीं पडता। यदि चैन पडे तो उसका साधुपन नहीं रहता।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा