संसार का यश तो तुच्छ
वस्तु है। मिला तो भी क्या और न मिला तो भी क्या? हमें मान-सम्मान की अभिलाषा ही नहीं रखनी चाहिए। ऐसी
तुच्छ वस्तुओं के पीछे आत्मा बर्बाद न हो जाए, इसके लिए इस जीवन में केवल जिनाज्ञा की आराधना अधिकतम
करने के लक्ष्य वाला बनना चाहिए। हम स्वयं शुद्ध हैं अथवा नहीं, यह अवश्य देखना चाहिए। हम स्वयं
सन्मार्ग पर हैं अथवा नहीं,
उसका
ध्यान रखने में तनिक भी उपेक्षा नहीं आने देनी चाहिए। हम सन्मार्ग पर हों, शुद्ध रहने के लिए प्रयत्नशील हों, केवल शासन-सेवा के आशय से ही
आज्ञानुसार कार्य कर रहे हों, फिर भी गालियां सुननी पडे, कष्ट सहने पडें, तो उसका सत्कार करें।
परिणाम में एकांत लाभ ही होता है।
भक्ष्याभक्ष्य के एवं
शील-मर्यादा आदि के उत्तम आचार-विचार दिन-प्रतिदिन घिसते जा रहे हैं। अभक्ष्य व
अनंत काय का उपयोग अधिक होता जा रहा है। अभक्ष्य एवं अनंत काय का उपयोग जैन कुलों
में नहीं होना चाहिए, ऐसी-ऐसी बातें कोई करे
तो उसकी भी मजाक की जाती है। शील-मर्यादा-विषयक उत्तम आचार छोडने के विरूद्ध हित
शिक्षा दी जाए, तो उन्हें यह कहने में भी लज्जा नहीं आती कि ‘इन्हें जमाने का होंश नहीं है’। समस्त श्रावक-कुल ऐसे हो गए हों, यह बात नहीं है। कतिपय
श्रावक-कुलों में अभी भी उत्तम आचार-विचार कायम हैं, परन्तु ऐसा अत्यंत अल्प प्रमाण में है। जडवाद की हवा
का वेग इतने प्रमाण में है कि यदि उसके समक्ष सचेत न रह सके तो आत्महित का नाश हुए
बिना नहीं रहेगा।
‘मुझे तो जीवन में अपनी आत्मा का
कल्याण करना है और कल्याण करने का एकमात्र मार्ग अनंत उपकारी श्री जिनेश्वर देवों
की आज्ञा की आराधना करना है।’ हृदय में ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए और आज्ञा की आराधना में मन-वचन-काया को
जोडने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। यह दशा होगी तो कर्तव्य से च्युत नहीं होंगे
और किसी भी पौद्गलिक लालसा के अधीन नहीं बनेंगे। भक्ष्याभक्ष्य के सेवन से बचेंगे, आचार, विचार और व्यवहार शासन के अनुरूप होगा।
इतनी सावधानी रखने पर
भी किसी तीव्र पापोदय से आत्मा का पतन हो भी जाए, तो भी कालांतर में उस आत्मा का उत्थान हुए बिना नहीं
रहता, उस आत्मा का मोक्ष
निश्चित हो जाता है और जो आराधना की हो वह तो निष्फल जाती ही नहीं, अपितु कल्याण-कामी हो। इसलिए यही
ध्येय रखना चाहिए और ऐसे प्रयत्न करने चाहिए, जिससे सुख पूर्वक आराधना हो सके। उसके लिए पतन के
संयोगों से बचने का प्रयत्न भी लगातार रखना चाहिए। पौद्गलिक लालसा से यथासंभव बचते
रहना चाहिए। यश की कामना,
मान-सम्मान
प्राप्त करने की इच्छा भी पौद्गलिक लालसा है। गीतार्थ महात्मा इस प्रकार की लालसा
से परे रहेंगे।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा