गुरुवार, 31 मई 2012

आज की भागदौड तृष्णा का आतंक है


मन की तृष्णा ने आज कितना भयानक आतंक फैलाया है? पिता-पुत्र, पति-पत्नी, बडा भाई-छोटा भाई, सास-बहू इन सब लोगों के बीच का व्यवहार देखो। जरा सोचो तो सही एक दूसरे के लिए कितनी ईर्ष्या, द्वेष-भावना दिल में भरी हुई है? मन की तृष्णा बढी है। पर-वस्तुओं को प्राप्त करने की व भोगने की लालसा बढी है और त्याग-भावना नष्टप्रायः हो गई है। इसके परिणामस्वरूप आज के संसार में भयानक भगदड और भागदौड मच रही है। लोग भौतिकता की चकाचौंध में अंधे हो गए हैं।

जब तक मन की भयानक भूख नहीं मिटेगी और त्याग की भावना पैदा नहीं होगी, तब तक ऐसी भगदड और भागदौड मची रहेगी, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। इस तरह विचार किया जाए तो अवश्य समझ में आएगा कि मन की भौतिक भूख ही सारे विनाश का कारण है। आज सभी तरफ अधिक से अधिक धन कमाने की होड मची हुई है, येन-केन-प्रकारेण जल्दी से जल्दी इतना धन कमाना कि कोई प्रतिस्पर्द्धा में अपने सामने न टिके। बस, यही धुन सवार है। नीति से कमाया हुआ धन भले ही अच्छा माना जाए, परन्तु धन तो वास्तव में खराब ही है, क्योंकि यह प्रायः तृष्णा को जगाता ही है। और जो धन का बन जाता है, वह बाप का नहीं रहता, मां का नहीं रहता, भाई का नहीं रहता, पुत्र का नहीं रहता, पुत्री का नहीं रहता; वास्तव में फिर वह किसी का नहीं रहता। धन ही उसके लिए सबकुछ होता है। वह धन के नशे में पागल हो जाता है, बेभान हो जाता है।

आज आप लोगों के घरों में बुजुर्गों की स्थिति ऐसी हो गई है कि जो कमावे, वह खावे और दूसरा मांगे तो मार खावे। ऐसी स्थिति हो जाने के कारण ही इस देश में वृद्धाश्रम या विधवाश्रम की बातें चलने लगी हैं। ऐसे आश्रम स्थापित हों, यह कोई गौरव की बात नहीं है; अपितु उन बुजुर्गों और विधवाओं के परिवारों के लिए तथा समाज और संस्कृति के लिए शर्म की बात है।

आपसे मेरा पहला प्रश्न यह है कि आपका राग आप के माता-पिता पर अधिक है या पत्नी-बच्चों पर अधिक है? भगवान पर राग होने का दावा करने वाले को मेरा यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। योग की भूमिका में माता-पिता की पूजा लिखी है, पत्नी-बच्चों की नहीं। मुझे तो ऐसा महसूस होता है कि आज के लोगों को कम से कम कीमत की कोई चीज लगती हो तो वह उसके मां-बाप हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 30 मई 2012

जिसके हृदय में श्रीनवकार, वह कैसे चाहे संसार?


श्री नवकार महामंत्र इतना अधिक महिमावंत है कि उसके स्मरण से समस्त दुःख भी दूर होते हैं और कर्मबंध का योग भी टल जाता है। इतना सुनने के पश्चात् लायक जीव के मन में ऐसा भाव नहीं जगेगा कि श्री नवकार मंत्र की इतनी महिमा किस कारण से है? उसके अक्षरों और उसके शब्दों में कौनसा सुन्दर तत्त्व समाया हुआ है? इस मंत्र द्वारा जिन्हें नमस्कार करते हैं, वे कौन हैं और कैसे हैं? इसके पदों में जिन-जिनको नमस्कार किया जाता है, वे कैसे और कितने उत्तम हैं कि जिनको पूरे मनोयोग से नमस्कार करने के प्रताप से सभी पापों का नाश हो जाता है? ऐसे विचार नवकार मंत्र की महिमा पर विश्वास करने वाले एवं उसे गाने वाले को आएंगे या नहीं? ‘मैं भी ऐसा बनूं’, इस प्रकार का भाव होगा या नहीं?

इस जन्म में श्री अरिहंत द्वारा कथित धर्म की प्राप्ति हो जाए तो मेरा परलोक सुन्दर बने और श्री अरिहंत द्वारा कथित धर्म की प्राप्ति से मेरी परलोक की परम्परा भी उत्तम बने। ऐसा करते-करते एक भव ऐसा भी आ जाए कि जिसमें मेरा समस्त पाप क्षय हो जाए। मैं कर्म के संयोग से सर्वथा रहित हो सकूं और मेरा शुद्ध स्वरूप प्रकट हो। मैं श्री सिद्ध पद का स्वामी बन जाऊं।ऐसी ही भावना नवकार मंत्र को जपने वाले में होती है न? यदि कोई नवकार मंत्र के स्मरण और शरण के फल के रूप में कुछ चाहे तो वह सर्व पापों का नाश ही चाहेगा न? अर्थात् वह सिद्ध पद की ही वांछा करेगा न?

श्री नवकार मंत्र द्वारा श्री अरिहंत को, श्री सिद्ध को एवं आचार्य-उपाध्याय-साधु को नमस्कार करने वाला एवं इन पांचों को किया गया नमस्कार सर्व पापों का क्षय करने वाला होता है, ऐसा समझने वाला जैन, इन पांचों के प्रति कितना समर्पित होगा? उसे चाहिए सिद्ध पद, मोक्ष, परमानंद, अक्षय सुख; इस हेतु वह श्री अरिहंत की आज्ञा का पालन करने के लक्ष्य वाला होता है। श्री अरिहंत की आज्ञा का पालन साधुपने में जैसा और जितना हो सकता है, वैसा और उतना गृहस्थावस्था में नहीं हो सकता, अतः साधुपना कब प्राप्त होगा’, ऐसा मनोरथ होता है। उसे संसार अच्छा नहीं लगता। वह समझता है कि सर्व पापों का नाश हुए बिना सिद्धत्व प्राप्त नहीं होगा एवं पाप के विनाश हेतु यदि कोई आराध्य हैं तो वे हैं श्री अरिहंत, श्री सिद्ध एवं श्री आचार्य-उपाध्याय-साधु। इन पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करने वाले को क्या चाहिए? ऋद्धि तो उसे स्वाभाविक रूप से मिलेगी ही, किन्तु उसे वह नहीं चाहिए, उसे तो चाहिए सिद्धि और जो ऋद्धि में अपना लक्ष्य और भान नहीं भूला, अपना विवेक नहीं खोया, लक्ष्य के प्रति समर्पित रहा, उसे मिलेगी सिद्धि।

श्री नवकार की प्राप्ति हुई अर्थात् दुर्गति की समाप्ति एवं सदगति निश्चित, परन्तु वह किसके लिए? श्री नवकार जिसे सर्वस्व लगे उसके लिए, हर किसी के लिए नहीं। चौदहपूर्वी भी कहते हैं कि श्री नवकार में जो तत्त्व है, उसका सम्पूर्ण कथन संभव नहीं है, जो भी श्रेष्ठतम और आत्महितकर है, वह सभी श्री नवकार में है। इसलिए पूरे मनोयोग से नवकार जपने वाले को तो संसार खारा ही लगेगा और साधुत्व ही प्यारा लगेगा।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

मंगलवार, 29 मई 2012

घर में वैराग्य का वातावरण बनाएं!

आप अपनी संतानों को कैसी सलाह देते हैं? आप उन्हें कैसी सलाह देना पसन्द करेंगे? श्री वीतराग प्रभु के सेवक के रूप में सांसारिक राग को पुष्ट करने की सलाह देनी चाहिए या वैराग्य पुष्ट करने की सलाह? कदाचित् आप वैराग्य की सलाह नहीं दे सकें, उस स्थिति में सुगुरु आदि आपकी संतानों को वैराग्य की सलाह दें तो उसमें आपको कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। जिसे यह भी पसंद न हो, उसे वीतराग का सेवक या जैन कैसे कह सकते हैं?
श्री वीतराग प्रभु का सेवक वैराग्य का विरोधी नहीं हो सकता। आज दशा बहुत विपरीत है। वैराग्य के प्रति वैर-भाव का माहौल चारों ओर बना हुआ है। आपका परिवार इससे मुक्त है’, क्या आप ऐसा कह सकते हैं? श्री वीतराग का सेवक तो वैराग्य की वैरी-हवा भी अपने घर में घुस न जाए, इसके लिए सतत जागरूक और प्रयत्नशील रहता है। आपने इसका ध्यान नहीं रखा। अन्यथा, जैन परिवार में, श्री वीर के उपासकों, सेवकों के परिवार में वैराग्य विषयक बातें होती रहें और ऐसी बातें बहुत प्रफुल्लित भावना के साथ हों, इसमें कोई आश्चर्य जैसी बात नहीं, बल्कि यह स्वाभाविक बात है। लेकिन, दुर्भाग्य से आज ऐसी स्थिति नहीं है। आज तो श्री वीतराग के खास सेवक मानेजाने वाले परिवारों में भी वैराग्य की बात लगभग होती ही नहीं है। इतना ही नहीं कुछ परिवारों को तो वैराग्य के नाम से ही वैर हो गया है, ऐसा लगता है।
जो श्री वीतराग का सेवक है, वह तो पुत्र को कहता है कि सुसाधु के पास जाओ, सुनो और अच्छा लगे तो उनके साथ ही रह जाओ। यदि मोह के कारण मैं भी बाधक बनूं तो मेरी बात मत मानना, क्योंकि न तो तुम्हें मरने से बचा सकूं, ऐसी मुझमें शक्ति है और न ही ऐसी मेरी सामर्थ्य कि मैं तुम्हारी आत्मा का कल्याण कर सकूं। सुसाधु ही तुम्हें आत्म-कल्याण के मार्ग पर ले जा सकते हैं। तुम्हें संयम मार्ग पर जाते हुए देखकर यदि मुझे मूर्च्छा आ जाए तो भी अपने मार्ग पर दृढ रहना। यहां तो सब स्वार्थ का तूफान है। मैं तुमसे कहूंगा कि मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता, लेकिन तुम्हारे मरने पर भी संभव है कि कुछ समय बाद मैं मिठाई खाऊं। कदाचित् तुम पहले मर गए तो तुम्हारा दाह-संस्कार मुझे ही करना पडेगा और यह करने पर मैं खाना-पीना छोड दूंगा, ऐसा भी मत मानना। इस दुनिया में तो मुर्दों पर भी मौज मनाने में किसी को संकोच नहीं होता। कोई किसी के पीछे नहीं मरता। यदि ऐसा सोचते हो तो यह सही नहीं है, भ्रान्ति मात्र है।ऐसी बातें रोज-रोज होती रहे तो परिवार में प्रायः सभी को संसार भयंकर लगे। संस्कारी आत्माएं पाप से काँप उठती हैं। यह अनंत ज्ञानियों द्वारा कथित मार्ग है। इसे घर में स्थापित कर दीजिए, फिर आपको अपने घर में अलग ही प्रकार की आनंददायी शान्ति का अनुभव होगा। सांसारिक जीवन को दिव्य और उच्च कक्षा का बनाने के लिए घर में वैराग्य का वातावरण लाना होगा। वैराग्य रहित जीवन, जीवन नहीं है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

सोमवार, 28 मई 2012

देखना, चौदह पूर्व का सार लज्जित न हो!


जिसने चौदह पूर्व के सार को प्राप्त कर लिया है, उसका मन क्या दुनियावी वस्तुओं की प्राप्ति में भटकेगा? और उसमें भी इस चौदह पूर्व के सार को साधन बनाने को प्रयत्नशील होगा? दुनियावी वस्तुओं की प्राप्ति, भौतिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति के लिए कोई श्री नवकार महामंत्र की आराधना करता है, चौदह पूर्व के सार को माध्यम बनाता है तो कहना पडेगा कि वस्तुतः उसे नवकार मंत्र का मूल्य ही समझ में नहीं आया है, हीरे के स्थान पर कंकर की अभ्यर्थना कर रहा है, अक्षय सुख और परमानंद के स्थान पर संसार चक्र में भटकाने, 84 लाख जीवयोनियों में रुलाने वाली अभ्यर्थना कर रहा है। जिसे चौदह पूर्व का सार प्राप्त हुआ, वह यदि संसार में आने वाले दुःखों से भागता रहेगा और संसार के सुखों के पीछे मंडराता रहेगा तो क्या वह चौदह पूर्व के सार को, श्री नवकार को लजाता नहीं है? वस्तु बहुत अच्छी है, परन्तु जिसे वह प्राप्त हुई है, उसे उसकी कीमत मालूम होनी चाहिए, अन्यथा वह बेकार और नुकसान करने वाली भी साबित हो सकती है।

मिथ्यात्व ने जगत पर और जगत के सुख पर ऐसी श्रद्धा करवा दी है कि मनुष्य उसे प्राप्त करने के लिए कोई भी संभव पुरुषार्थ करने में कमी नहीं रखता। जिस-जिस में सुख माना, उसे जानने का मन कितना? देखने का मन कितना? प्राप्त करने का मन कितना? और, जिन्हें अपना माना उन्हें भी यह ज्ञान कराने और दिखाने आदि का मन कितना? मिथ्यात्व द्वारा उत्पन्न श्रद्धा यदि यह कार्य करे तो जिन्हें श्री नवकार की प्राप्ति हुई है, जिन्हें नवकार पर वास्तविक श्रद्धा उत्पन्न हुई है, उन्हें क्या-क्या जानने, देखने, प्राप्त करने और संभालने का मन होगा? श्री नवकार मंत्र में जो भी है, वही जानने का, देखने का और प्राप्त करने का मन होगा न? और, इससे अधिक अच्छी व सच्ची वस्तु प्राप्त करने जैसी अन्य नहीं है, यह भी भाव पैदा होता है न? श्री नवकार मंत्र श्रेष्ठ क्यों है? उसमें ये बैठे हैं इसलिए? कौन? योग्यता और पुरुषार्थ से श्री अरिहंत बने हैं वे! उसके फलस्वरूप सिद्ध भी बैठे हैं। उनकी आज्ञा का अहर्निश पालन करने वाले आचार्य, उपाध्याय एवं साधु बैठे हैं। यह सब उसमें बिराजमान हैं, इसलिए नवकार मंत्र महान है! उन पांचों को किए जाने वाले नमस्कार में यह सामर्थ्य है कि नमन करते-करते यदि भाव बढ जाएं तो श्रेणी पर आरूढ हो जाए और नमन करने वाला केवलज्ञानी बन जाए, यह भी संभव है।

लेकिन, आज अधिकांशतः स्थिति अलग है। कुछ लोग आकर कहते हैं कि श्री नवकार गिनने से व्यापार बढ गया, आय बढ गई, बंगला नहीं था वह हो गया, मोटर नहीं थी वह आ गई, अमुक रोग नहीं मिटता था, वह मिट गया आदि।और कुछ तो यहां तक कह देते हैं कि पुत्र नहीं था, वह हो गया।ऐसे जीवों की श्री नवकार पर श्रद्धा में वृद्धि हुई या श्री नवकार पर की श्रद्धा दुर्लभ हुई? ऐसे जीव मुग्ध कोटि के नहीं होते। श्री नवकार जपते हुए जो सुख उत्पन्न होता है, उसका जिसे अनुभव हो, वह तो कहता है कि श्री नवकार मंत्र के स्मरण से अब मैं परम् शान्ति का अनुभव कर रहा हूं, कोई भी दुनियावी पदार्थ मिले या चला जाए, अब वह मुझे परेशान नहीं कर सकता। अब विषय-कषाय का उतना जोर नहीं रहा। अब तो बारंबार यही भाव आता है कि जल्द से जल्द दुनिया के सभी संग छूट जाएं और मैं मोक्ष गति को प्राप्त कर सकूं। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 27 मई 2012

धर्म-स्थान मोह को मारने के लिए हैं


श्री जिनमन्दिर, उपाश्रय, पाठशाला आदि धर्म-स्थान दुनियावी वस्तुओं का मोह दूर करने के लिए और आत्म-स्वभाव के प्रकटीकरण के लिए हैं। उन स्थानों में जाकर भी हम दुनियावी पदार्थों का राग बढाएं तो हम उन पवित्र स्थानों की आशातना ही करते हैं। श्री जिनेश्वर देव के मन्दिर में जाकर जिनेश्वर भगवंत की सेवा करके यही भावना करें कि हे भगवन्! आप वीतरागी हैं, मैं रागी हूं। मुझे वीतरागी बनना है, इसीलिए आपकी सेवा में आया हूं। आप के दर्शन व पूजन के योग से मुझ में वीतराग भाव प्रकट हो, यही मैं चाहता हूं। आपकी आत्मा 'पर' के संग से सर्वथा मुक्त बनी, इसी प्रकार मेरी आत्मा भी 'पर' के संग से सर्वथा मुक्त बने, यही मेरी भावना है। जैसे आप हैं, वैसा ही मैं बनना चाहता हूं। आप के जैसा बनने के लिए ही मैं आपकी शरण में आया हूं।

आप ही मेरे आधार हैं, आपकी शरण स्वीकार कर मैं आपकी आज्ञानुसार जीना चाहता हूं। आपकी पूजा के योग से मुझ में आपकी आज्ञा पालन करने का सामर्थ्य पैदा हो, यही मैं चाहता हूं। आपकी आज्ञा के अनुसरण सिवाय मेरी कोई इच्छा नहीं है, क्योंकि आपकी आज्ञा के अनुसरण में ही सभी का कल्याण रहा हुआ है। ऐसी श्रद्धा मेरी आत्मा में प्रकट हुई है।श्री जिनेश्वर परमात्मा की प्रतिमा के सामने आँखें स्थिर कर व मन को एकाग्र कर इस प्रकार की भावना करनी चाहिए, परन्तु अन्तर में इस प्रकार की भावना पैदा होना भी अत्यंत कठिन है। आत्म-स्वभाव की पहचान हो और आत्म-स्वभाव को विकसित करने की भावना जगे तो यह भावना पैदा हो सकती है। इसके लिए पर-वस्तुएं आत्मा से भिन्न हैं’, यह भाव आना चाहिए।

उपाश्रय में से कौनसी ध्वनि निकलती है? आत्म-स्वभाव को प्रकट करने की ही न? इससे विपरीत ध्वनि निकले तो समझना चाहिए कि उपाश्रय में रोग फैल गया है। वह जल्दी बाहर निकले और दूसरे किसी को उसका चेप नहीं लग जाए, उसके लिए सावधानी आवश्यक है। उपाश्रय में आने पर आत्म-कल्याण की बातें सुनाई देती है और आत्म-कल्याण कर रहे महापुरुषों के दर्शन होते हैं। उसके योग से आत्मा को प्रेरणा मिलती है और अपने सत्त्व को विकसित करने की भावना जागृत होती है। उपाश्रय में दुनियावी पदार्थों का मोह बढाने वाली बातें नहीं हों, मात्र आत्म-कल्याण की ही बातें हों, तभी उपाश्रय में आने वाले के मोह पर प्रहार हो सकता है।

इसी प्रकार पाठशाला में भी आत्म-कल्याण का ही शिक्षण मिलना चाहिए। पाठशाला का शिक्षण जिनेश्वर देव की आज्ञा की आराधना में सहायक होना चाहिए। पाठशाला से धर्म-क्रिया में रस बढना चाहिए। धर्म-क्रिया के सूत्र पढते समय धर्म-क्रिया के प्रति आदर भाव बढता जाए, वैसी योजना पाठशाला में होनी चाहिए, तभी पाठशाला मोह को मारने का साधन बन सकती है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 26 मई 2012

अपना भविष्य अपने हाथ में है

आप जरा शान्त-चित्त से चिन्तन करके देखिए, अपने आप से पूछिए कि मैं कौन हूं, शरीर या आत्मा?’ आप चिन्तन करेंगे तो पाएंगे कि मैं शरीर नहीं, अपितु आत्मा हूं।शरीर और आत्मा एक नहीं, बल्कि भिन्न हैं, इसी कारण जो शरीर का सुख है, वह आत्मा का सुख नहीं है। शरीर के सुख में आत्मा को सुख हो,ऐसा नियम नहीं है। शरीर के दुःख में भी आत्मा सुखी हो सकती है और शरीर के सुख में भी आत्मा दुःखी हो सकती है। लेकिन, किसी भी अवस्था में आत्मा को दुःखी नहीं करना चाहिए। आत्म-सुख के लिए शरीर का सुख छोडना पडे तो छोड देना,क्योंकिमैं शरीर नहीं हूं।शरीर और आत्मा भिन्न हैं, मैं शरीर नहीं, आत्मा हूं; इतना भान आपको हो जाएगा तो आपकी कार्यशैली स्वतः बदल जाएगी।
मैं कहां से आया हूं?’ इसकी कल्पना अपनी वर्तमान स्थिति से कर सकते हैं। किसी भी गति से मैं आया, लेकिन इतना तो तय है कि पूर्व भव में कुछ पुण्य कर्म करके आया हूं। इसीलिए मुझे यह श्रेष्ठ भव मिला है तथा अन्य जीवों की अपेक्षा श्रेष्ठ सामग्री प्राप्त हुई है। मेरा वर्तमान आचरण कैसा है?’ अब यही देखना है, क्योंकि यहां से मरकर कहां जाना है, इसका आधार उसी पर है। सदगति में ही जाने की इच्छा होने पर भी वर्तमान जीवन शैली के आधार पर ही वह स्थान निश्चित होने वाला है। इस दृष्टि से आपका भविष्य आप के ही हाथों में है। आप जो प्रवृत्ति करते हैं, वह भविष्य का विचार करके करते हैं? इस सवाल पर विचार करते हुए आपको धैर्य के साथ चिन्तन करना होगा।
सोचना होगा कि मैं जो भी प्रवृत्ति कर रहा हूं,क्या भविष्य का विचार करके कर रहा हूं? आत्मा की दृष्टि से भविष्य में इसका अच्छा परिणाम आएगा या नहीं? यदि आपको यह समझ नहीं आता तो ज्ञानियों से पूछकर अपनी प्रवृत्ति करें, क्योंकि अब तक जो किया,वह तो भूतकाल हो गया, उसके भविष्य में जो परिणाम आने हैं, वे तो आएंगे ही, किन्तु अब तो संभल जाऊं ताकि भविष्य सुधर सके, अब आगे का तो अपने हाथ में है। वर्तमान काल हमारे भूतकाल की कार्यशैली का ही परिणाम है, इसका खयाल नहीं होने के कारण ही वर्तमान में शान्ति नहीं है। लेकिन, भविष्य अपने हाथ में होने पर भी गलत प्रवृत्ति कर अपने भविष्य को बिगाडना क्या समझदारी का लक्षण है? भविष्य का चिंतन करने वाले चक्रवर्ती सम्राट भी राजपाट सब छोडकर साधु बन गए। एक क्षण में उन्होंने छः खण्ड की सुख-सामग्री छोड दी। उन्होंने सोचा कि इस सुख-समृद्धि में भविष्य का विचार नहीं किया तो भविष्य खतरनाक है।कोई भी प्रवृत्ति करते समय भविष्य का विचार करना तथा स्वयं को मालूम न पडे तो ज्ञानी को पूछकर प्रवृत्ति करना, ये दो नियम जीवन सुधार के लिए आवश्यक हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 25 मई 2012

अयोग्य को उपदेश का निषेध

शास्त्रकार कहते हैं कि जगत के जीवों की अंतर्दृष्टि खुल जाए वैसा प्रयत्न करो, क्योंकि अंतर्दृष्टि के अभाव में सच्चे उपकार के लिए किया गया प्रयत्न भी निष्फल ही जाता है। उल्लू को दिखाई दे, यह ताकत सूर्य में भी नहीं है। सूर्य के उदय में लोगों को आनंद होता है, किन्तु उल्लू को दुःख होता है। इसी प्रकार कई आत्माओं को सच्चे साधु का एकांत आत्म-हितकर उपदेश भी पसंद नहीं आता। उन आत्माओं को सुखी बनाने की ताकत अनंतज्ञानी परमात्मा में भी नहीं है। अतः अंतर्दृष्टि खुल जाए वैसा प्रयत्न करना चाहिए।
जिसकी भवितव्यता अच्छी होती है, उसी की अंतर्दृष्टि खुलती है। निकट भविष्य में जिसका कल्याण होने वाला हो, उसी को अंतर्दृष्टि खोलने वाला उपदेश अच्छा लगता है। शास्त्रकारों ने अयोग्य-अपात्र को उपदेश देने का निषेध किया है। अयोग्य आत्माओं को चाहे जितना उपदेश दिया जाए,उसे लाभ होने के बजाय नुकसान ही होता है। आज समाज में चार तरह का वर्ग है। पहले तो जगत में अधिकांश लोग ऐसे हैं जो सच्चे साधु का उपदेश सुनते ही नहीं हैं। दूसरा, रूढचुस्त वर्ग सुनता है, लेकिन एक कदम भी आगे नहीं बढता है। तीसरा, वर्तमान युग का पंडित वर्ग है जो सुनता तो है,लेकिन दूसरों को उपदेश देने के लिए अथवा दुनिया में अपने पांडित्य का प्रदर्शन करने के लिए सुनता है। धर्म की आराधना के लिए ये तीनों वर्ग बेकार हैं। हमें तो ऐसा चौथा वर्ग चाहिए, जिसकी अंतर्दृष्टि खुल गई हो अथवा खुलने की तैयारी में हो।
सभा में हम उसी वर्ग को देखते हैं। सभा में हमें तभी विशेष आनंद आता है, जब यह चौथा वर्ग श्रोता के रूप में हो। अर्थी के पास साधन-सम्पन्न दाता खिलता है। उसी प्रकार योग्य श्रोता मिले तो बोलने वाले की शक्तियां भी बढ जाती हैं। धर्म श्रवण के लिए आए आत्म-कल्याण के साधक को त्याग की बात पसंद न आए, यह नहीं हो सकता। धर्म की बात में घर छोडने की बात आएगी, परन्तु लक्ष्मी बढाने की बात नहीं होगी, अपितु उसका सदुपयोग करने की बात आएगी। अन्तर्दृष्टि खुले बिना अथवा खुलने की योग्यता प्राप्त हुए बिना, यह बात पसंद आने वाली नहीं है। अतः मुख्य बात यही है कि अंतर्दृष्टि खोलने के लिए प्रयत्नशील बनो।
अन्तर्दृष्टि खोलने के लिए प्रतिदिन प्रातःकाल और रात्रि में सोने से पूर्व थोडे समय के लिए यह विचार करें कि मैं कौन हूं? कहां से आया हूं? मैं क्या करता हूं? और वर्तमान में चल रहा मेरा आचरण मुझे कहां ले जाएगा?' इन चार बातों का प्रतिदिन विचार करो। इन बातों पर विचार करते-करते एक दिन अंतर्दृष्टि खुलने लगेगी और बहिर्दृष्टि दूर हो जाएगी। उसके बाद सद्गुरु की खोज और वीतराग परमात्मा की सेवा किए बिना चैन नहीं पडेगा।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 24 मई 2012

अन्तर्दृष्टि खोलो


प्राणी मात्र के कल्याण की उत्कृष्ट भावना के फल स्वरूप महापुण्य उपार्जित करने के बाद अनंतज्ञानी बने परमात्मा ने तथा उन तारक परमात्मा की आज्ञा वहन करने वाले अन्य महापुरुषों ने इस बात का निर्णय करके कहा है कि जब तक व्यक्ति की आत्म-दृष्टि, अन्तर्दृष्टि नहीं खुलती, तब तक उसका कल्याण होने वाला नहीं है। आजकल बाह्यदृष्टि खूब बढ गई है, इस कारण मैं कौन हूं, कहां से आया हूं और कहां मुझे जाना है’, इसका विचार ही नहीं आता है। जो कुछ आँख के सामने है, उसी की साधना करना, लगभग यह दृष्टि अधिकांश लोगों की हो गई है। जिनके पास थोडी-बहुत अन्तर्दृष्टि है तो वे भी प्रायः निश्चित ध्येय वाले नहीं हैं।

जिसे साध्य का निश्चय नहीं है, वह कोई भी कार्य सिद्ध नहीं कर सकता है। विवेक रहित आत्मा को पौद्गलिक सुख प्रदान करने वाले पदार्थ भी सुख देने में समर्थ नहीं होते हैं। परन्तु, इस बात का निर्णय तो तभी हो सकता है, जब आप स्वयं विचार करोगे। अभी विचार नहीं करोगे तो एक दिन आपको विचार करना पडेगा। परन्तु, उस समय आप कुछ भी करने में असमर्थ बन जाओगे। इसीलिए ज्ञानियों ने यह विचार अंत समय में नहीं, अपितु हमेशा करने को कहा है।

जो दुनिया आँख के सामने आती है, उसे हम प्रत्यक्ष देखते हैं। संपत्ति वाले सुखी हैं और संपत्ति हीन दुःखी हैं अथवा साधन-सम्पन्न सुखी हैं और साधन-हीन दुःखी हैं’, ऐसा एकांत नियम नहीं है। संपत्ति व साधन हीन होने पर भी कई सुखी होते हैं और संपत्तिवान व साधन-सम्पन्न होने पर भी कई दुःखी होते हैं। परन्तु, यह बात अंतर्दृष्टि वाले बनोगे तब ही खयाल में आ सकेगी। इसीलिए ज्ञानी अन्तर्मुखी बनने की प्रेरणा देते हैं।

भूखे व्यक्ति को देखकर जितनी दया आती है, उतनी दया पापी को देखकर नहीं आती है। एक व्यक्ति भूखा होने पर भी समभाव में स्थिर रहकर मर जाता है और दूसरा व्यक्ति पाप करते हुए दुर्भाव में मर जाता है। इन दोनों में खराब हालत किसकी होने वाली है? दुर्भाव में मरने वाले की। पूर्व काल के उत्तम पुरुषों की यह विशेषता थी कि उन्हें भूखे रहने में जितना दुःख नहीं होता था, उतना दुःख पाप करते समय होता था। भूख के दुःख के समय तो वे अपना कल्याण साध लेते थे।

आज अधिकांश लोगों में पाप का भय नहीं है, पाप के प्रति तिरस्कार नहीं है। इस कारण पापी की दया प्रायः नष्ट हो गई है। आज दुनियावी दृष्टि से जो लोग अच्छे माने जाते हैं, उनके पापों की गिनती की जाए तो पार नहीं आएगा। फिर भी आपको उनके जैसा बनने की इच्छा होती है, किन्तु साधु को देखकर साधु बनने की इच्छा नहीं होती है। कारण कि आपकी अंतर्दृष्टि नहीं खुली है, आपको पाप-पुण्य का विचार नहीं है और मोक्ष आपका लक्ष्य नहीं है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा