सोमवार, 30 अप्रैल 2012

शक्य पाप छोडो


जिसे धर्म से प्रेम नहीं है, वह दुःखी हो तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। दुःख से बचना हो और सुख पाना हो तो धर्म के अलावा और कोई दूसरा मार्ग नहीं है। इस जगत में सर्वश्रेष्ठ धर्म वीतराग परमात्मा द्वारा प्ररूपित साधु-धर्म ही है। इसमें पाप का सर्वथा त्याग होता है और आत्मा का सहज निर्मल स्वरूप प्रकट हो, ऐसा पुरुषार्थ एवं आचरण होता है। मनुष्य गति और साधु-धर्म के माध्यम से ही आत्मा पुनरपि जननम्, पुनरपि मरणम्के चक्र से मुक्त हो सकती है और उसका चौरासी लाख जीव-योनियों में भटकाव खत्म हो सकता है, अपार और असह्य कष्टों से उसे मुक्ति मिल सकती है।

वर्तमान में आप संसार का त्याग करने में असमर्थ हों तो यह कह सकते हैं कि यह धर्म तो बहुत सुन्दर है, परन्तु इसका पालन हमारे लिए अभी शक्य नहीं है, अतः कोई दूसरा उपाय बताओ।जिसके दिल में ऐसी भावना जगी हो, उसके लिए दूसरा उपाय है- दुनियावी पदार्थों को आत्मा से भिन्न मानकर उनके प्रति ममता-आसक्ति का त्याग करना। यह शरीर भी अपने से भिन्न है, अतः शरीर की ममता का भी त्याग करना चाहिए, क्योंकि दुनियावी पदार्थ और शरीर की ममता तथा उनके सुयोग से सुख की कल्पना ही पाप का मूल है। अतः संसार न छूटे तब भी, संसार में रहते हुए भी उसकी ममता घटाकर जितना संभव हो, उतने हिंसादि पापों का त्याग करना चाहिए। इसके साथ ही यथाशक्ति देव-गुरु-धर्म की सेवा करनी चाहिए।

किसी भी निरपराधी जीव को पीडा नहीं पहुंचानी चाहिए। बडे झूठ नहीं बोलने चाहिए। चोर के नाम से कर्म कलंकित हो, ऐसी चोरी नहीं करनी चाहिए।स्व-स्त्री में संतोषी बनना चाहिए और परिग्रह का परिमाण करना चाहिए। इतना हो सकता है न? यह भी इन्द्रियों पर संयम आए तभी हो सकता है। इस प्रकार शक्य पाप छोडने का प्रयास करते-करते शक्ति प्राप्त हो जाए और भावना बढ जाए तो साधु जीवन को स्वीकार करने का प्रयत्न करना चाहिए।

इस प्रकार परमात्मा की शरणागति को स्वीकार कर जो आत्माएं साधु-धर्म की आराधना करने में लीन बनती हैं, वे आत्माएं इस भव में समभाव के कारण विकट परिस्थिति में भी अनुपम शान्ति प्राप्त करती हैं। इस भव में पाप का त्याग और धर्म के आदर के फलस्वरूप परभव में भी उस आत्मा को उत्तम सामग्री प्राप्त होती है। इस प्रकार वर्तन करने वाले का क्रमशः आत्म-स्वरूप प्रकट होने से वो आत्मा अनंत सुख की भोक्ता बनती है। सभी आत्माएं इस प्रकार का आचरण कर, दुःख से मुक्त बनकर, शाश्वत सुख की भोक्ता बनें, यही शुभाभिलाषा।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 29 अप्रैल 2012

मोक्ष-साधक धर्म की उपेक्षा ठीक नहीं

अनंत उपकारी अनंतज्ञानी श्री वीतराग परमात्मा फरमाते हैं कि अर्थ और काम को त्याज्य और मोक्ष-साधक धर्म को उपादेय मानो।परन्तु, आज अर्थ और काम का ही शिक्षण दिया जाता है, अर्थ और काम के दासत्व में ही सुख माना जाता है। आत्मा के स्वरूप और आत्मा के मोक्ष का विचार भी नहीं आता है। आज जहां धर्म का भी अर्थ-काम के साधन के रूप में ही इस्तेमाल किया जाता हो, वहां अर्थ-काम हेय है और मोक्ष-साधक धर्म ही उपादेय है’, यह बात उपदेश में कही जाए तो पसंद किसको आए?
आपको पसंद आए या न आए, परन्तु जो हितकर बात है, वह अवसर देखकर कहनी ही चाहिए, जिससे श्रोताओं में कोई सुयोग्य आत्मा हो तो उसे लाभ हो जाए। योग्य आत्मा को सत्य का प्रकाश मिल जाए तो उसमें आत्म-हित की भावना जागृत हो सकती है। कडवी भी बात यदि हितकर हो तो उसे कहने में ही दया है। मां अपने बीमार पुत्र को दबाव करके भी कडवी दवाई पिलाती है, फिर भी वह निष्ठुर नहीं कहलाती है। उसी प्रकार साधु भी वीतराग परमात्मा के द्वारा निर्दिष्ट धर्म को जीवन में आत्मसात् कर जगत में उस धर्म का प्रचार करने वाले होते हैं। वे साधु यदि आपको सच्ची व हितकारी बात न कहकर आपको खुश करने के लिए दूसरी ही बातें करें, चिकनी-चुपडी करें, तो कहना पडेगा कि वे साधु परमात्मा के बताए मार्ग के प्रति वफादार नहीं हैं। इतना ही नहीं, वे दयाहीन भी हैं, क्योंकि यदि दयालु होते तो दूसरों के रोष के भाजन बनकर भी हितकर सच्ची बात ही कहते। जब सच्ची बात सामने वाले के गले उतरेगी तो अवश्य ही उसका रोष उतर जाएगा और वह उपकार मानेगा।
साधु को तो सच्ची हित-शिक्षा ही देनी चाहिए और आपको भी अपनी भलाई के लिए सुसाधुओं की सच्ची हित-शिक्षा को जीवन में आत्मसात् करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। यहां हर बात मेंहांकह दो और फिर घर जाने के बाद आचरण में लाने के लिए कुछ भी प्रयत्न न करो तो यह नुकसान साधु का नहीं, आप के स्वयं का है, क्योंकि सुधर्म की साधना नहीं करोगे तो आप ही सच्चे सुख से वंचित रहोगे। सुसाधुओं को तो आप अमल करें या न करें, फिर भी हितकर भावना के कारण एकांत लाभ ही है। अर्थ-काम की वासना बढाने वाले, अर्थ-काम को उपादेय मानने वाले, अर्थ-काम से कल्याण है, ऐसा उपदेश देने वाले न देव हैं, न गुरु हैं और न ही वो धर्म है। मोक्ष के लिए ही धर्म का आचरण आवश्यक है। अतः अन्य कामनाओं का त्याग कर एक मात्र मोक्ष-साधक धर्म के आचरण में ही तत्पर बनो। जो आत्माएं मोक्ष-साधक धर्म के आचरण में उद्यमशील बनेंगी, वे आत्माएं क्रमशः दुःखरहित सम्पूर्ण शाश्वत मोक्ष सुख प्राप्त करेंगी।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 28 अप्रैल 2012

हर किसी को धर्म नहीं रुचता


वर्तमान समय में इस भरत क्षेत्र में अनंतज्ञानी पुण्य पुरुष विद्यमान नहीं हैं, परन्तु उन तारकों के द्वारा निर्दिष्ट पुण्य-पाप के स्वरूप को बतलाने वाले शास्त्र विद्यमान हैं। उन शास्त्रों की आज्ञानुसार जीवन जीने के लिए प्रयत्न करना चाहिए और उन शास्त्रों के मर्म को जानने वाले त्यागी पुरुषों की सेवा करनी चाहिए। अनंतज्ञानी वीतराग परमात्मा को देव के रूप में, उन तारकों की आज्ञानुसार जीवन जीने वाले संसार-त्यागी को गुरु के रूप में तथा उन तारकों के द्वारा निर्दिष्ट धर्म को, धर्म मानकर, उनको स्वीकार कर, उनको अंगीकार कर अन्य नामधारी-मिथ्यात्वी देव, गुरु और धर्म का त्याग करना चाहिए।

इस प्रकार सुदेव-सुगुरु-सुधर्म को अपना कर संसार-त्यागी गुरुओं की सेवामें रहते हुए धर्म साधने के लिए स्वयं भी संसार-त्यागी बनकर हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह के पापों का मन, वचन, काया से सर्वथा त्याग करना चाहिए। ऐसे पाप दूसरों से भी नहीं कराने चाहिए और ऐसा पाप करने वालों की अनुमोदना भी नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार संसार का त्याग कर आत्मा के मूल और निर्मल स्वरूप को प्रकट कराने में सहायक अनुष्ठानों में गुरु एवं शास्त्राज्ञानुसार जुट जाना चाहिए, ताकि आत्मा को आवृत्त करने वाले कर्मों का क्षय किया जा सके और आत्मा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त बनकर अविनाशी सुख और परम आनन्द को प्राप्त कर सके।

यहां कई बार अपनी अल्प समझ के कारण या भौतिकता की चकाचौंध में आसक्त लोग बहानेबाजी के रूप में अथवा तो कोई मिथ्यात्वी हंसी उडाने के बहाने एक सवाल उठाते हैं कि रोज-रोज वैराग्य और साधु बनने का ही उपदेश दिया जाता है, सभी साधु बन जाएंगे तो फिर क्या होगा?’ इसका जवाब यह है कि, ‘स्वयं परमात्मा की उपस्थिति में, उन तारकों का सतत उपदेश प्रवाहित होने पर भी किसी काल में ऐसा हुआ नहीं है और भविष्य में भी कभी ऐसा होने वाला नहीं है, क्योंकि दुनिया के अनंत जीवों में से जो अल्प-संसारी भाग्यशाली आत्मा होती है, उसी को ही अनंतज्ञानी परमात्मा का सच्चा और युक्तियुक्त उपदेश पसन्द आता है। हर किसी को धर्म नहीं रुचता। पुण्यशाली आत्माओं को ही यह संयोग मिलता है।

हीनभागी आत्माओं को तो ऐसी बातें सुनने को भी नहीं मिलती है। कदाचित् सुनने को मिल जाए तो भी भारीकर्मिता के कारण वे बातें समझ में नहीं आती, पसंद नहीं आती है। प्रभु के वचन पसन्द आने के बाद भी जो भाग्यशाली, अल्पसंसारी और लघुकर्मी आत्माएं होती हैं, वे ही आत्माएं भगवान की आज्ञानुसार साधु बनकर, पाप का त्याग और धर्म का आचरण कर सकती हैं। इस कारण सभी साधु बन जाएंगे तो फिर क्या होगा, यह चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शाश्वत सुख के लिए मोक्ष ही प्राप्तव्य

जहां दुःख का नामोनिशान नहीं, सुख की अपूर्णता नहीं, जहां सुख कभी घटने वाला और नष्ट होने वाला नहीं, ऐसा स्थान एक मात्र मोक्ष ही है। ऐसे स्थान की प्राप्ति हो तो ही सुख के संदर्भ में संसारी जीवों की जो इच्छा है, वह पूर्ण हो सकती है। इसी कारण धर्म से अर्थ, काम और मोक्ष इन तीनों की प्राप्ति होने पर भी अर्थ-काम की प्राप्ति के लिए धर्म करने का निषेध कर एक मात्र मोक्ष के लिए धर्म करने की आज्ञा अनंतज्ञानियों ने फरमाई है।
मोक्ष क्या है? मोक्ष अर्थात् अपनी आत्मा के स्वरूप का पूर्ण प्रकटीकरण! पुण्य और पाप से सर्वथा मुक्त बनना, इसी का नाम मोक्ष है। जब तक आत्मा पुण्य-पाप से लिप्त होती है, तब तक आत्मा शुद्ध स्वरूप वाली नहीं है। अभी अपनी आत्मा पुण्य-पाप के अधीन है। पुण्योदय से अनुकूल और पापोदय से प्रतिकूल सामग्री प्राप्त करती है। इस स्थिति को दूर किए बिना एकांत सुखमय स्थिति प्राप्त नहीं हो सकती है। हमें दुःख रहित, पूर्ण और शाश्वत सुख चाहिए। दुनिया में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है, जो शाश्वत काल टिक सके। पुण्य भी शाश्वत काल टिकने वाला नहीं है। शाश्वत काल रहने वाला एकमात्र आत्म-स्वरूप है। आत्म-स्वरूप प्रकट हो तो शाश्वत सुख मिले। स्व-स्वरूप की प्राप्ति बिना आत्मा एक स्वरूप में शाश्वत काल टिक नहीं सकती, क्योंकि पुण्य-पाप के योग से स्थिति बदलती रहती है।
पुण्य और पाप, इन दोनों से मुक्त होने का साधन एक मात्र धर्म है। मोक्ष के उद्देश्य से किए गए धर्म से आत्मा पर लगे कर्मों की निर्जरा होने लगती है। उस समय पुण्य का बंध भी हो तो वह पुण्य आत्मा को मोक्ष की साधना में सहायक बनता है, अर्थात् वह पुण्यबंध मोहित नहीं होने देता है। वह पुण्य तो अर्थ-काम की उत्तमोत्तम सामग्री देता है, फिर भी वैराग्य जीवित रहता है, जीवित रखता है। अतः आत्मा उस सामग्री को मोक्ष-साधना में सहायक बना सकता है। धर्म से अर्थ-काम की प्राप्ति अवश्य होती है, परन्तु अर्थ-काम की प्राप्ति के उद्देश्य से धर्म का आचरण नहीं करना चाहिए। क्योंकि, धन-दौलत और इन्दि्रय-सुख शाश्वत नहीं हैं, इनका भोग और इनकी आसक्ति आत्मा को दुर्गति में ले जाती है।
अर्थ-काम की वासना तो आत्मा को सच्चे सुख से दूर रखने वाली है। उस वासना को दूर कर आत्म-स्वभाव प्रकट करने की भावना करनी चाहिए। अर्थ-काम से सुख मिलता है’, यह बात आज सभी मान बैठे हैं और इसी के पीछे भाग रहे हैं, इन्हें पाने के लिए लोग सारी जोड-तोड कर रहे हैं, नीच से नीच काम करने तक को तैयार हो जाते हैं, लेकिन यह सोचना भूल जाते हैं कि इनसे आज तक कितने लोग चरम सुख पा सके हैं? अर्थ-काम से प्राप्त क्षणिक सुख में लुब्ध बनने से कितने दुःख उठाने पडते हैं?शाश्वत सुख पाना हो तो अल्पकालीन सुख का लोभ छोडना ही चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

दुनियावी वस्तुओं के पीछे भागना मूर्खता

उपकारी महापुरुषों ने हमें आत्मा के मूल स्वरूप को प्रकट करने का मार्ग बताया है, उसी का नाम धर्म है। आत्मा के स्वरूप को प्रकट करने के ध्येय से ही धर्म आचरण करना चाहिए। दुनियावी वस्तुओं में सुख देने की शक्ति नहीं है,यदि होती तो वे चीजें किसी को सुखदायी और किसी को दुःखदायी लगे ऐसा न होता। इतना ही नहीं, दुनियावी वस्तुएं चाहे जितनी मेहनत और पाप करके प्राप्त की हो तो भी उनकी सुरक्षा और उनका भोग व्यक्ति की इच्छा के अधीन नहीं है।
मेहनत और पाप करने के पश्चात भी जिसका भाग्य होता है, उसी को दुनियावी वस्तुएं प्राप्त होती हैं। दुनियावी वस्तुएं मिलने के बाद भी जिसका भाग्य हो वो ही व्यक्ति उन्हें भोग सकता है। भाग्य में न हो तो देनदार कर्ज न चुकाए, घर में चोरी हो जाए, खेती-व्यापार में नुकसान हो जाए, आग लग जाए। इस प्रकार अनेक कारणों से प्राप्त वस्तुएं भी चली जाती हैं। कदाचित् भाग्य योग से रह जाएं और भोगने का भाग्य न हो तो ऐसी बीमारी आ जाती है, जिस कारण खाना-पीना,ओढना-पहिनना बंद हो जाता है। कदाचित् भाग्य अनुकूल हो और वस्तुएं भोगने को भी मिलें, तब भी अंत में तो उन सबको यहीं छोडकर अकेले ही जाना पडता है।
इसलिए दुनियावी वस्तुओं में सुख मानने में बुद्धिमत्ता नहीं है। इन नाशवंत और पराधीन वस्तुओं की प्राप्ति, सुरक्षा और भोग में मशगूल बनकर असीम पुण्य योग से प्राप्त इस मनुष्य जन्म को पापों से मलीन करना, सिर्फ मूर्खता ही है। ऐसी मूर्खता कर सुख की आशा रखना, यह तो महामूर्खता है। ज्ञानी महापुरुषों ने इस मूर्खता को छोडने का उपदेश दिया है। उनका तो उपदेश है कि, ‘दुनिया के किसी भी पदार्थ में सुख नहीं है, सुख तो सिर्फ आत्मा में ही रहा हुआ है।इस सत्य को समझकर आत्मा के सुख को प्रकट करने के लिए पाप को त्यागो और सच्चे धर्म के सेवन में तत्पर बनो। उपकारी महापुरुष फरमाते हैं कि ज्ञान-चक्षु खोलो, वस्तु-स्थिति को समझो।
दुनिया के नाशवंत पराधीन पदार्थों के संयोग से सुख मिलता है’,इस भ्रम को दूर कर आत्मा में रहे शाश्वत सुख को प्रकट करने के लिए प्रयत्नशील बनो। पुण्योदय से प्राप्त दुनियावी वस्तुओं का भी मोह छोडो, क्योंकि उन वस्तुओं में सुख मानकर भोग में पडोगे तो पाप का बंध होगा, जिसके फलस्वरूप पुनः दुःख प्राप्त होगा। पुण्योदय से प्राप्त दुनियावी वस्तुओं का भी त्याग करना और दुःख में भी खेद न कर, धर्म का आचरण करना, यही सच्चे सुख का श्रेष्ठ मार्ग है। महान पुण्योदय से प्राप्त मानव जन्म को सफल व सार्थक बनाने के लिए यही एक मार्ग है। पूर्व के अनंत भवों की तरह यह भव भी निरर्थक चला गया तो वापस आर्य संस्कृति, सुदेव, सुगुरु, सुधर्म का योग कब मिलेगा, कहा नहीं जा सकता।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

बुधवार, 25 अप्रैल 2012

अर्थ-काम भाग्याधीन हैं

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष’, इन चार पुरुषार्थों में अर्थ और काम तो नाम के ही पुरुषार्थ कहे हैं।कारण कि अर्थ और काम की प्राप्ति स्वतंत्र रूप से नहीं है, उनमें अन्य पुण्य वस्तु की अपेक्षा रहती है। दुनिया के सभी लोग अर्थ और काम के लिए रात-दिन मेहनत करते हैं, रात-दिन अर्थ और काम की प्राप्ति के लिए ही विचार और प्रवृत्ति करते हैं। अर्थ और काम की प्राप्ति के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं, फिर भी हम देखते हैं कि दुनिया में श्रीमंत कितने और गरीब कितने? भोग की सामग्री से सम्पन्न कितने और भोग की सामग्री से रहित कितने? इससे स्पष्ट है कि पुरुषार्थ करने पर भी इच्छित की प्राप्ति सभी को नहीं होती है।
अर्थ और काम की प्राप्ति इस जन्म के पुरुषार्थ के अधीन होती तो किसी को भी पुरुषार्थ किए बिना अर्थ-काम की प्राप्ति नहीं होनी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता है, क्योंकि कई लोग ऐसे स्थान में जन्म लेते हैं, जिन्हें लेशमात्र भी श्रम किए बिना अर्थ-काम की प्राप्ति हो जाती है। राजा व श्रीमंत के यहां जन्म लेकर राजा व श्रीमंत बनने वालों ने इस जन्म में कौनसा पुरुषार्थ किया था? किसी को बिना किसी मेहनत के विपुल सम्पत्ति का स्वामीत्व प्राप्त हो जाता है, उसमें इस जन्म की मेहनत कहां थी? इससे सिद्ध होता है कि सिर्फ इस जन्म के पुरुषार्थ से अर्थ-काम की प्राप्ति नहीं होती है, अपितु पुरुषार्थ करने पर भी उसी को अर्थ-काम की प्राप्ति होती है, जिसने पूर्व भव में पुण्यकर्म का उपार्जन किया हो। जिसने पूर्वभव में पुण्य उपार्जन नहीं किया, उसे लाख प्रयत्न करने पर भी इस जन्म में इच्छानुसार अर्थ-काम की प्राप्ति नहीं होती है।
जिस प्रकार बिना श्रम किए अर्थ-काम की प्राप्ति किसी भाग्यशाली को होती है, उसी प्रकार अर्थ-काम का भोग भी भाग्यशाली ही कर सकता है। भाग्य न हो तो घर में मेवा-मिष्ठान्न व अनाज के भण्डार भरे पडे हों तो भी मूंग के पानी या छाछ पर जिन्दा रहना पडता है। जिसका भाग्य नष्ट हो गया हो, वह लाख कोशिश करे तो भी उसे राजगद्दी छोडनी पडती है। बडे श्रीमंत को भी दर-दर भीख मांगनी पडती है। इस प्रकार अर्थ-काम की प्राप्ति, उनका भोग और उनका संरक्षण इस जन्म के पुरुषार्थ के अधीन नहीं है, भाग्याधीन है। पूर्वोपार्जित पुण्याधीन है। इन सब बातों से यह स्पष्ट होता है कि दुनिया भले अर्थ और काम को पुरुषार्थ के रूप में स्वीकार करे, लेकिन ये नाम के ही पुरुषार्थ हैं।
इस दुनिया में अर्थ-काम की जो अनुकूलता प्राप्त होती है, वह पुण्य के योग से और जो कुछ विडम्बनाएं प्राप्त होती हैं, वह पाप के योग से होती हैं। इस बात से सभी आस्तिक दर्शनकार इत्तफाक रखते हैं। सत्कर्म से पुण्य और दुष्कर्म से पापबंध होता है। सत्कर्म भी धर्म का ही एक प्रकार है, इसलिए यह मानना पडेगा कि धर्म के बिना अर्थ-काम की भी सिद्धि नहीं होती है। मोक्ष की सिद्धि भी धर्म के बिना नहीं होती। इससे स्पष्ट है कि दुनिया में चार पुरुषार्थ कहे भले ही हों, किन्तु धर्म ही सच्चा पुरुषार्थ है। चूंकि सच्चे और अक्षय सुख की प्राप्ति मोक्ष में ही संभव है, इसलिए ज्ञानियों ने अर्थ-काम को हेय मानकर सिर्फ मोक्ष के लिए ही धर्म करने का उपदेश दिया है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

आज मेरा दूसरा जन्म हुआ था!



मित्रों! आज 25 अप्रेल, 2012 है। अब से ठीक 25 वर्ष पूर्व 25.04.1987 की रात 12.40 बजे मुझ पर कुछ पेशेवर डकैतों ने कातिलाना हमला किया, जिसमें मेरे शरीर का एक अंग पूरी तरह कट गया। वे आए थे मुझे मारने और इसी के लिए उन्हें एक तथाकथित साधु, जो साधु है ही नहीं, वस्तुतः साधुता के नाम पर कलंक है और आज वह स्वयं अपने कर्मों की बदौलत सड रहा है, उसके शरीर का एक-एक अंग सड रहा है, उसने अपनी और अपने साथियों की रंगरेलियों की खबरों को दबाने, बंद करवाने के लिए मुझे लाखों रुपयों का प्रलोभन देकर खरीदने की कोशिश की और जब वह इसमें सफल नहीं हुए तो पेशेवर डकैतों से मुझे मारने का सौदा 12 लाख रुपयों में किया।

इन पेशेवर डकैतों में सेना के भगोडे और भीलवाडा की बैंक डकैती में साढे चार साल जेल में काट चुके शातिर अपराधी, जिसका पुलिस के साथ 32 घण्टे एनकाउंटर चला, जिसने एक तहसीलदार के हाथ-पांव काट दिए, ऐसा डकैत गजराज सिंह, केकडी, एक तहसीलदार का आवारा बेटा अजीतसिंह, पाली और एक शातिर अपराधी दिलीपसिंह चौधरी अजमेर से आए थे।

यहां उदयपुर से उन्होंने शराब पिलाकर चार लोगों को और अपने साथ लिया- ललित मेनारिया, उमाशंकर, अरुणकुमार और टेक्सी ड्राईवर दिलीपसिंह। मैंने इन सातों को पहली बार देखा था। मध्य रात्रि का समय था और पांच मिनिट में ही सारा घटनाक्रम घटित हो गया था। मेरी पत्नी ने शोर मचा दिया, जिस कारण इन सबको भागना पडा। मैं खून में पूरी तरह लथपथ था, शरीर से खून के फव्वारे छूट रहे थे, इसके बावजूद मैंने दौडकर उन डकैतों का पीछा किया और गाडी के नम्बर नोट कर लिए। खैर........घटनाक्रम लम्बा है, उसमें नहीं जाना चाहता। सभी अपराधी पकडे भी गए, उनकी हमने सिनाख्त भी करली और मुख्य अभियुक्तों का उनके अपने कर्मों से कोर्ट द्वारा सजा सुनाए जाने से पहले ही खात्मा भी हो गया। मेरी उन सब चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं है। मैंने अपने जीवन में कभी किसी को बददुआएं दी और ही किसी के प्रति प्रतिशोध की भावना रखी। जिसके कर्म जिसके साथ।

मैं यहां दूसरी बात बताना चाहता हूं। यह तो सामने से हुआ वार, जो खबरों से पीड़ित व्यभिचारियों ने करवाया। लेकिन, जिन लोगों, जिस संस्कृति के संरक्षण के लिए, जो इन व्यभिचारियों से पीड़ित और प्रताड़ित थे और जिन्हें मेरे लेखन से राहत मिली और उनकी बंद पडी श्वसन-क्रिया फिर से चालू हुई, जो अपने आपको उच्चाचारी मानते हैं, घटना से पूर्व जो मुझ में एक क्रान्तिवीर की छवि देखते थे; वे ऐसे दुम दबाकर भागे और ऐसे हो गए कि जैसे मुझे पहिचानते भी हों; यह जो तथाकथित ऊंचे चारित्र वालों को भयंकर कोटि का विश्वासघात मेरे साथ हुआ, इसने मुझे आहत किया, भयंकर रूप से तोड दिया। यह आज भी मुझे बहुत वेदना देता है।

इस व्यवहार पर मुझे कई बार जब विचार आता है तो मैं कई-कई दिन आज भी सो नहीं पाता। हालांकि मेरे हौंसले बुलन्द हैं। मुझे मौत की परवाह तब थी और आज है। तब भी मैं न्याय-नीति पर था और आज भी मैं न्याय-नीति पर हूं। मेरे जीवन की यही नियती है, इसीलिए निम्न पंक्तियां मुझे हमेशा आगे बढाती हैं-



संघर्षों में सुख मिलता है

मैं खतरों का कब का आदी,

संघर्षों का अति चिरपरिचित।

झंझावातों, तूफानों में,

होती मेरी गति उत्कंठित।।



मेरे पथ में जैसा दिन है,

वैसी ही अॅंधियारी रातें।

मुझे भुलावे में क्या डाले,

यश-अपयश की धूमिल बातें।।



चलना चाहूं, चल सकता हूं,

रुकना चाहूं, रुक सकता हूं।

सब कुछ है मेरी इच्छा पर,

और किसी के कहे चलता हूं।।



नभ के सूरज की क्या महिमा,

वह रजनी में गायब रहता।

मैं मिट्टी का दीप ठीक हूं,

कृष्ण निशा में जग-मग रहता।।



हँसते-हँसते विष पीऊॅंगा,

बदले में अमृत बाँटूंगा।

धरती पर के दुःख द्वन्द्व की,

लोह श्रृंखलाएं काटूंगा।।



मैं काँटों के पथ पर चलता,

फूलों का नहीं मैं अभिलाषी।

नीति-न्याय के लिए लडूंगा,

संघर्षों से नहीं हटूंगा।।



संघर्षों में सुख मिलता है,

स्वाभिमान से जीवन चलता है।

मानवता के श्री चरणों में,

जीवन का अमृत मिलता है।।



मैं खतरों का कब का आदी,

संघर्षों का अति चिरपरिचित।

झंझावातों, तूफानों में,

होती मेरी गति उत्कंठित।।



·        मुझे डकैतों द्वारा दिए गए घाव और कटे हुए अंग ने जितना दर्द दिया है, उससे अनंत गुणा दर्द तथाकथित उच्चाचार की बात करने वालों के विश्वासघात ने दिया है।

·        इंसान गैरों के हमलों से नहीं, अपनों के विश्वासघात से आहत होता है।

·        मैं तो आज भी संतुष्ट हूं इस बात से कि मैंने साधु का चोला पहिनकर पापाचार करने, असाधुत्व का सेवन करने, व्यभिचार करने और समाज को धोखा देने वालों को बेनकाब किया है।

·        यह दुर्भाग्य है समाज का कि वह जानकर भी मख्खी निगलता है, अंधविश्वास के कारण, साम्प्रदायिक बाडेबन्दी के मोह में, कुलपरम्परा के नाम पर या उन पाखण्डियों के बोगस तंत्र-मंत्र से डरकर। सच्चाई यह है कि उनमें कोई मांत्रिक शक्ति है ही नहीं। यदि होती तो वे डकैतों का सहारा क्यों लेते? मुझे मंत्र-शक्ति से ही भस्म कर देते!

·        लोग बहाव के साथ बहते हैं, धारा के साथ बहते हैं, भीड के साथ चलते हैं; भीड को चीरकर, धारा को चीरकर, धारा के विपरीत (प्रतिस्रोतगामी) चलना सबके लिए संभव नहीं, इसलिए मुझे किसी से कोई अपेक्षा भी नहीं है। सच्चाई सहानुभूति की मोहताज भी नहीं होती, लेकिन जो सच्चाई, निष्ठा और ईमानदारी, सुचिता व संस्कृति का चोला पहिनते हैं, उनका दायित्व क्या?

·        यह पोस्ट इसलिए कि समाज में जागरूकता आए! जो कोई जाग सके!