सरकार यानी नेता और अफसर!
इन्हें देश सेवा से कोई सरोकार नहीं, ये
कैसे अपनी कुर्सी पर जमे रहें और कैसे अधिकतम धन-सम्पत्ति बटोर सकें, इसी उधेडबुन में ये लगे रहते
हैं। सेवा निवृत्ति की आयु पहले 55 साल
थी। कर्मचारी रिटायर होता, नौजवान
को मौका मिलता। कर्मचारी चूंकि मरते दम तक कुर्सी छोडना नहीं चाहता, इसलिए चालाकी से उसने अपनी सेवा
निवृत्ति की आयु बढवा ली। 55 से
57,
फिर
58
और
फिर 60
साल; अब वह 62 और 65 करवाने की जोडतोड में लगा है।
इस बीच मर जाएंगे तो बच्चे को अनुकम्पा नौकरी मिल जाएगी, कब्जा बना रहेगा। अपनी वेतन
वृद्धियां भी नेता और कर्मचारी आराम से करवा लेते हैं, क्योंकि मंहगाई सिर्फ उन्हीं को
सताती है।
नई भर्तियां रोक दी गईं।
कर्मचारी कुछ मर-खप गए तो कुछ को रिटायर होना ही पडा, लेकिन नेताओं और कर्मचारियों ने
सरकार को इतना दिवालिया कर दिया कि पद रिक्त होने के बावजूद जहां-जहां और जितना नई
भर्तियों को टाल सकती थी टालती रही। अब जब सरकारी काम और सरकार लडखडाने लगे तो
इन्होंने शोषण का नया फण्डा तैयार किया, जिसने
दुष्टता की, निर्दयता की शोषण की सारी हदें
लांघ दी है। पिछले 8-10 वर्षों
में सरकार ने गैर सरकारी संगठनों के पेटर्न पर संस्थाएं बनाकर काम शुरू किया। जैसे
नाको, एड्स कंट्रोल सोसायटी, एनआरएचएम, आदि-आदि। इसमें ऊपर के स्तर पर
कुछ सरकारी अधिकारी प्रतिनियुक्ति पर बैठ गए और नीचे के स्तर पर संविदा के आधार पर
मामूली वेतन पर कर्मचारी रखे जाते हैं। अफसर मजे कर रहे हैं, नेताओं को कमीशन देकर घोटाले भी
कर रहे हैं, विदेश यात्राएं भी कर रहे हैं
और उनकी वेतन वृद्धियां तो रूटीन में हो ही रही हैं। नीचे संविदाकर्मियों की तरफ
देखने की जरूरत ही नहीं, चां-चूं
करेंगे तो नौकरी से निकाल देंगे। कैसी है यह दुष्ट मनोवृत्ति?
क्या सरकार ने असंगठित
संविदाकर्मिर्यों के लिए भी कभी कुछ सोचा है? जिस
योग्यता और काम के आधार पर सरकारी कर्मचारी को 40 हजार
से एक लाख रुपये मासिक वेतन मिल रहा है, उसी
योग्यता और काम के आधार पर एक संविदा कर्मी को 6,500 से
10,000
रुपये
मासिक मिल रहा है। काम संविदाकर्मी ज्यादा करता है और स्थाई कर्मचारी हरामी ज्यादा
करता है। फिर भी वेतन वृद्धियां और मंहगाई भत्ता स्थाई कर्मचारी का बढता है, संविदाकर्मी रोता है। कैसा शोषण
और विडम्बना है? स्थाई
कर्मचारी रिश्वत और घेटाले में भी लिप्त होता है, संविदाकर्मी
के परिवार को दो वक्त का भोजन और उसके बच्चे को अच्छे स्कूल में शिक्षण नसीब नहीं
होता है। क्या यह संविधान और मानवीय गरिमा के अनुरूप है? समान काम के लिए समान वेतन का
सिद्धान्त कहां है? क्या
सरकार की यह नीति अराजकता को जन्म नहीं देगी?
जरा हिसाब तो लगाएं कि 8-10 साल पहले एक स्थाई कर्मचारी को
कितना वेतन मिलता था और आज कितना मिलता है? वहीं
एक संविदाकर्मी को उस समय कितना वेतन मिलता था और आज कितना मिलता है? आप चाहे उसे स्थाई न करो, जब तक अच्छा और ईमानदारी से काम
करे तब तक ही रखो, लेकिन
रोटी तो पूरी दो, इतना
पैसा तो दो कि वह भी अपने बच्चे को अच्छा पढा सके।
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