शुक्रवार, 30 मार्च 2012

साधु जीवन की आराधना का सार तत्त्व


शास्त्रकार कहते हैं कि अच्छे काम में ढील मत डालो। अच्छा कार्य तो जब लग गया कि यह अच्छा है, तो उसी समय कर डालो। उसके बाद अगर एक पल भी बीतता है, तो वह आप के  लिए घाटे का बन जाता है। जिसकी दृष्टि आत्मा पर पहुँच जाती है, वह कभी भी धर्म के कार्य को आगे के लिए नहीं छोडता है।

आजकल तो क्या होता है? कोई दीक्षा लेना चाहता है तो उसको अन्तराय देने वाले तो बहुत मिल जाते हैं। बाधक बनने वाले तो बहुत मिल जाते हैं, लेकिन विरले ही माता-पिता ऐसे सोचने वाले होते हैं कि हमारा अहोभाग्य होगा, यदि हमारे परिवार का एक बच्चा भी दीक्षित हो जाए। अरे, सात पीढयों की पुण्यवानी एकत्र हो, तब जाकर एक आत्मा के भीतर संसार त्याग की भावनाएँ जागती है।

हमारा दृष्टिकोण अपनी आत्मा पर, अपनी चेतना पर चला जाए। आत्मा की सफाई का विचार हमें हो जाए, चेतना की सजावट के लिए हम सजग हो जाएं, तो फिर हम आत्मा को ठीक रूप से देख सकते हैं। फिर हमारे जीवन की सारी गति, जीवन की सारी क्रिया, जड की ओर नहीं चेतन की ओर होगी।

अभी तो हमारे जीवन के अधिकाँश क्षण जड की ओर गतिशील हैं। जड को सजाने का काम हम कर रहे हैं। चेतना को सजाने का कार्य बहुत कम, अल्प व्यक्तियों का हो रहा है। बहुत कम व्यक्तियों का ध्यान, आज चेतना की ओर जा रहा है। और इसी दृष्टि से शास्त्रकार बार-बार संकेत कर रहे हैं-संपिक्खए अप्पगमप्पएण।

अर्थात् साधक तुम स्वयं को देखो। दूसरों को मत देखो। जड पदार्थों को देखने का कार्य मत करो। अपनी चेतना को देखने का काम करो। यदि चेतना का रूप दृष्टि में आ गया, चेतना का अनुभूति मूलक साक्षात्कार यदि हो गया, तो फिर तुम्हारे जीवन की गति उस प्रकार की बन जाएगी, तुम्हारा जीवन उस दिशा में गतिशील हो जाएगा कि जहाँ पहुँच कर फिर लौटना न पडे।

जिन प्रवृत्तियों से आत्मा का सच्चा हित होता है, ऐसी प्रवृत्तियों में खूब-खूब जागृत रहना और आत्मा के लिए अहितकर प्रवृत्तियों में बधिर (बहरा), अंध और मूक (गूंगा) हो जाना; यही साधु जीवन की आराधना का सार है।

शास्त्र विरूद्ध, दूसरों की निंदा व निरर्थक बातें सुनने में बहरा हो जाना, पौद्गलिक रूपदर्शन, जड पदार्थ के क्षणिक सौंदर्य दर्शन व दूसरों के दोष देखने में अंधा बन जाना तथा दूसरों के अवर्णवाद बोलने में, जिन वचन विरूद्ध बोलने में मूक हो जाना, यही समस्त आराधनाओं का सार है।’-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें