मंगलवार, 13 मार्च 2012

क्रोध, मान, माया, लोभ सबसे बडे शत्रु


क्रोध विवेक को नष्ट कर देता है। क्रोध जब व्यक्ति को आता है तो वह बेभान हो जाता है, उसे करणीय-अकरणीय का विवेक नहीं रहता, वह प्रीति को समाप्त कर देता है। मान, विनय को नष्ट कर देता है। अभिमान में व्यक्ति को यह ध्यान नहीं रहता कि मेरे सामने कौन खडा है? उनका विनय किस प्रकार किया जाए? वह तो स्वयं को सर्वेसर्वा मानता है। अभिमानी व्यक्ति को जरा-सी प्रतिकूलता मिली नहीं कि वह क्रोध से आगबबूला हो उठता है। माया, मैत्री भाव को नष्ट कर देती है। माया-छल-कपट जब व्यक्ति के भीतर जाग जाता है तो फिर वह मित्र को भी मित्र नहीं मानता। उससे भी छलावा करने लगता है। मायावी व्यक्ति में अहंकार भी होता है और क्रोध भी।

और लोभ जब व्यक्ति के भीतर जाग जाता है, तो वह सर्वनाश कर देता है। सब कुछ नष्ट कर देता है। लोभ तो सारी इज्जत को मिट्टी में मिला देता है। सारी प्रतिष्ठा को धूल में मिला देता है। इतना ही नहीं, लोभ के आ जाने पर सारा जीवन ही नष्ट हो जाता है। लोभ हमारे भीतर जाग जाता है, तो हम ' पर' के साथ मैत्री कर लेते हैं। पर के साथ जब मैत्री होने लगती है, तो वहीं सारी विषम स्थितियां पैदा हो जाती है। लोभी व्यक्ति में माया भी होती है और अहंकार व क्रोध भी।

क्रोध, मान, माया और लोभ ये आत्मा के स्वभाव नहीं, आत्मा के गुण नहीं, ये विभाव हैं, ये सभी बाहरी, पर संयोगों का परिणाम हैं। ये चारों किसी न किसी रूप में अन्योन्याश्रित भी हैं और साथ-साथ भी चलते हैं। क्रोध, मान का कारण भी है। मान, माया का कारण भी है। माया, लोभ का कारण भी है। क्रोध, मान, माया और लोभ आत्मा के सबसे बडे शत्रु हैं, इनसे बचेंगे तो ही यह मानव भव सार्थक होगा।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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