देवत्व के भोगों की तुलना में मानवीय भोग अति तुच्छ
हैं। देवताओं के भोगों से परिचित नहीं होने के कारण मनुष्य इन तुच्छ भोगों में लीन
हो जाते हैं। ऐसे भोगों को वर्षों तक भोगने पर भी तृप्ति नहीं होती। इससे यह सूचित
होता है कि भोग-सुख भोगने से भोगवृत्ति तृप्त होती ही नहीं है। भोगों की तृष्णा
हटाए बिना सुख और आनंद प्राप्त नहीं होगा। यदि आनंद चाहिए, तृप्ति चाहिए तो तृष्णा को त्यागना होगा। तृष्णा
युक्त मन रखने वाला मनुष्य इस लोक के भोगों को भोग कर तृप्ति प्राप्त करे, आनंद प्राप्त करे, यह
संभव नहीं।
वर्तमान मौजशौख के साधन व भौतिकता की चकाचौंध में ही
जो स्वर्ग व मोक्ष की कल्पना करता हो,
उसे तो धर्मशास्त्र भी
सिर्फ बोझारूप लगेंगे। भावी जीवन को सुधारने और आत्महित की चिंता के प्रति जो
बेपरवाह हैं, उन्हें अपने स्वयं के दोष सुनने की इच्छा भी नहीं
होती है, फलस्वरूप शिष्ट पुरुषों का समागम और तत्त्वचिंतन आदि
गुणों का आगमन बन्द हो जाता है और जीवन में अहंकार आ जाता है। ऐसे लोगों को फिर
चापलूसी ही अच्छी लगती है,
जो स्वयं भी डूबते है
और दूसरे को भी डुबो देते है। आज अधिकांश लोगों में अपनी कमियां या क्षतियां सुनने
की ताकत नहीं रही है,
इस कारण कोई खरी-खरी
कहे तो बुरा लगता है;
परन्तु जब आत्मज्ञान होगा
तब अपनी भूल बताने वाले उपकारी लगेंगे।
सुख एक उत्तेजना है, और
दुःख भी। प्रीतिकर उत्तेजना को सुख और अप्रीतिकर को हम दुःख कहते हैं। आनन्द दोनों
से भिन्न है। वह उत्तेजना की नहीं,
शान्ति की अवस्था है।
सुख जो चाहता है,
वह निरंतर दुःख में
पडता है। क्योंकि,
एक उत्तेजना के बाद
दूसरी विरोधी उत्तेजना वैसे ही अपरिहार्य है, जैसे
कि पहाडों के साथ घाटियां होती हैं और दिनों के साथ रात्रियां। किन्तु, जो सुख और दुःख दोनों को छोडने के लिए तत्पर हो जाता
है, वह उस आनन्द को उपलब्ध होता है, जो कि शाश्वत है।
आत्मा से उत्पन्न होनेवाले वास्तविक आनन्द की बजाय, जो वस्तुओं और विषयों से निकलने वाले सुख को ही आनन्द
समझ लेते हैं, वे जीवन की अमूल्य सम्पदा को अपने ही हाथों नष्ट कर
देते हैं। ध्यान रहे कि जो कुछ भी बाहर से मिलता है, वह
छीन भी लिया जाएगा। उसे अपना समझना भूल है। स्वयं का तो वही है, जो कि स्वयं में ही उत्पन्न होता है। वही वास्तविक
सम्पदा है। उसे न खोजकर,
जो कुछ और खोजते हैं, वे चाहे कुछ भी पा लें, अंततः
वे पाएंगे कि उन्होंने कुछ भी नहीं पाया है और उल्टे उसे पाने की दौड में वे स्वयं
जीवन को ही गंवा बैठे हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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