सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

मर्यादा नहीं तो कुछ नहीं


आत्मा का ज्ञान हुए बिना, जितना अधिक पढा जाए उतना अधिक गंवारपन आता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण आज के कॉलेज हैं। आत्म-ज्ञान से रहित व्यक्तियों को ज्ञान देने का यह परिणाम है। आत्मा का ज्ञान हो तो विवेक और मर्यादा का भान हो। बिना मर्यादा के मनुष्य जंगली जानवर से भी बदतर है। आप अपने लोक-व्यवहार में ही देख लो, आज के युवकों की हालत सबके सामने है, देश, समाज और परिवारों की हालत सामने है।

मर्यादा रहेगी वहां तक धर्म रहेगा। महापुरुष भी किसी की निश्रा में रहते थे, उनकी आज्ञानुसार चलते थे। आज चारों ओर मर्यादा का दीवाला निकलता जा रहा है। कोई किसी की सुनने या मानने को तैयार नहीं। पुत्र माता-पिता की बात नहीं मानते और विद्यार्थी शिक्षक का उपहास करते हैं।

मर्यादा होने से घरों का संचालन भी ठीक तरह से होता है। मर्यादा से रहित घरों में हमेशा झगडे हुआ करते हैं। सास-बहू में झगडा, देरानी-जेठानी में झगडा, भाई-भाई में और पिता-पुत्र में झगडा।

मिथ्याज्ञान पाकर आप के लडके आप के न रहें यह आप सहन कर सकते हैं, परन्तु सम्यग्ज्ञान से आप के लडके आप के न रहकर साधु बन जाएं तो यह आप सहन नहीं कर सकते। कैसी गजब की बात है? साधु बनना तो दूर, अच्छे संस्कारों के लिए भी कभी उन्हें धर्म स्थान में लाने का, सद्गुरुओं के सान्निध्य में लाने का प्रयास-प्रेरणा करते हैं?

वर्तमान युग, हिंसक युग है। जिस युग को आप अच्छा मानते हैं, वह घोर घातकी युग है। लाखों जीव काटे जाते हैं; वह भी कानून का ठप्पा लगाकर। आप इस हिंसा को रोक भी नहीं सकते। यदि रोकने का प्रयत्न करो तो देशप्रेमीन गिनाओ। कैसा विचित्र है यह युग ?

आज युवकों की क्या दशा है, यह तो अखबार पढनेवाले आप लोगों को मालूम ही है, ये युवक अपने बाप के भी बाप बन गए हैं। और प्रोफेसर के भी प्रोफेसर बन गए हैं। कॉलेजों के संस्थापक कॉलेजों को कैसे चलावें, इस चिंता में हैं और नए कॉलेज न खोलने के निर्णय पर आए हैं। दुनिया में पढे-लिखे गिने जानेवाले अपनी होंशियारी का उपयोग भी दुनिया को परेशान करने में और स्वयं का स्वार्थ साधने में कर रहे हैं।

आज मनुष्य मनुष्य से घबराकर चलता है। जानवर से तो थोडी दूरी पर रहे तो निर्भय, परन्तु मनुष्य तो पीछे पडजाता है। अतः उससे डरकर रहना पडता है। ऐसा यह युग है। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

रविवार, 26 फ़रवरी 2012

बाबा रामदेव ने किया केजरीवाल का समर्थन

बाबा रामदेव ने किया केजरीवाल का समर्थन
इस
देश की आम जनता के दर्द से जुडा सबसे अहम मुद्दा टीम अन्ना और रामदेवजी ने उठाया, जो कोई राजनीतिक दल या राजनेता नहीं कर सका, इन्होंने कर दिखाया, लेकिन शीर्ष पर पहुंचते-पहुंचते इनमें अधिक विनम्रता और सरलता आने की बजाए, इतना अधिक अहंकार आ गया है कि ये तानाशाही मानसिकता के
शिकार हो गए हैं, विवेक नष्ट हो गया है, इसीलिए मानसिक संतुलन खो गया है और कुछ भी मर्यादाविहीन बोल
जाते हैं, भाषा-विवेक नहीं रहा और
बौखलाहट में इतने अच्छे आंदोलन को इन्होंने खुद मटियामेट कर दिया है। अब
भोली-भावुक-भ्रष्टाचार पीडत जनता किस पर भरोसा करे? आजकल के मर्यादाहीन नेताओं में और इनमें अब क्या फर्क रह गया है?

धर्म नीलाम हो रहा है


आज धर्म का माल लेनेवाले थोडे हैं और माल देने वाले बहुत हो गए हैं। इसलिए धर्म का माल नीलाम हो रहा है, ऐसा अनुभव होता है। माल अधिक हो और खपत कम हो, इस तरह हर किसी को धर्म चिपकाने के प्रयत्न हो रहे हैं। ज्ञानी तो कहते हैं कि धर्म पात्र व्यक्ति को ही देना चाहिए, हर किसी को नहीं। धर्म बहुत मंहगी वस्तु है। मांगने आने पर इसकी कीमत समझाकर देने जैसी यह चीज है। परन्तु, आजकल तो प्रायः धर्म का नीलाम हो रहा है। नीलाम में रुपये का माल पैसों में बिकता है। ऐसी अधो दशा आज धर्म की हो रही है।

संसार के प्रति अरुचि न हो तो, धर्म किस काम का? अधिक प्राप्त करने के लिए धर्म किया जाता हो तो वह धर्म, धर्म रहता ही नहीं, धंधा हो जाता है, बिना पैसे के धंधे जैसा। कई लोग अपने व्यापार को बढाने के लिए मन्दिर दर्शन करने जाते हैं, उन्हें होंश ही नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं? भगवान को व्यापार में भागीदार बना रहे हैं? मुझे इतना लाभ होगा तो आपको इतना प्रतिशत भेंट करूंगा। उन्हें ऐसा करते हुए शर्म भी नहीं आती? जो भगवान वितरागी हैं, राग-द्वेष, मोह-माया रहित हो गए हैं, जिनका कोई परिग्रह नहीं है, उनसे सौदा कर रहे हैं? उन्हें व्यवसाय में भागीदार बना रहे हैं और उनकी सेवा में लगे देवों को कमीशन एजेंट, दलाल बना रहे हैं? यह कैसा पागलपन है?

भगवान धन-दौलत, अपार समृद्धि, राजपाट सब छोडकर साधु बने। साधु बनने का अर्थ है- सुखों को लात मारकर दुःखों को निमंत्रण देना। जिस धन को और जिन सुखों को भगवान ने छोड दिया, उनके पीछे आप पड रहे हैं और इसमें आपको कुछ भी अनुचित नहीं लगता है तो आप भगवान के भक्त नहीं रह जाते हैं।

दान, धन से अपनी मूर्च्छा को तोडने के लिए दिया जाता है, दान में सौदा नहीं होता, देव द्रव्य में सौदा नहीं होता!

आज आपको साधुओं की आवश्यकता क्यों है? बहोराने के लिए? इनके पगल्ये हों तो घर में लक्ष्मी के पगल्ये हो जाएं इसलिए? या धर्म करने हेतु शास्त्र की विधि का ज्ञान आवश्यक है इसलिए? कतिपय तथाकथित साधु भी इस स्थिति का लाभ उठा रहे हैं या तो फिर वे भी समाज के इस मिथ्याचार में ऑंखें मद कर बहे जा रहे हैं, क्योंकि बाह्यरूप से तो उन्होंने संसार छोड दिया; परन्तु हृदय के भीतर से उनका संसार नहीं छूटा। आज समाज का उद्धार नहीं, अधःपतन हो रहा है। शक्ति बढने के साथ घरों में मौज-शौक के साधन तो बढते ही जा रहे हैं, परन्तु धर्म के साधन बढते हुए कहीं नजर नहीं आते हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

आज की भागदौड तृष्णा का आतंक है


मन की तृष्णा ने आज कितना भयानक आतंक फैलाया है? पिता-पुत्र, पति-पत्नी, बडा भाई-छोटा भाई, सास-बहू इन सब लोगों के बीच का व्यवहार देखो। जरा सोचो तो सही एक दूसरे के लिए कितनी ईर्ष्या, द्वेष-भावना दिल में भरी हुई है? मन की तृष्णा बढी है। पर-वस्तुओं को प्राप्त करने की व भोगने की लालसा बढी है और त्याग-भावना नष्टप्रायः हो गई है। इसके परिणामस्वरूप आज के संसार में भयानक भगदड और भागदौड मच रही है। लोग भौतिकता की चकाचौंध में अंधे हो गए हैं।

जब तक मन की भयानक भूख नहीं मिटेगी और त्याग की भावना पैदा नहीं होगी, तब तक ऐसी भगदड और भागदौड मची रहेगी, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। इस तरह विचार किया जाए तो अवश्य समझ में आएगा कि मन की भौतिक भूख ही सारे विनाश का कारण है। आज सभी तरफ अधिक से अधिक धन कमाने की होड मची हुई है, येन केन प्रकारेण जल्दी से जल्दी इतना धन कमाना कि कोई प्रतिस्पर्द्धा में अपने सामने न टिके। बस, यही धुन सवार है। नीति से कमाया हुआ धन भले ही अच्छा माना जाए, परन्तु धन तो वास्तव में खराब ही है, क्योंकि यह प्रायः तृष्णा को जगाता ही है। और जो धन का बन जाता है, वह बाप का नहीं रहता, मां का नहीं रहता, भाई का नहीं रहता, पुत्र का नहीं रहता, पुत्री का नहीं रहता; वास्तव में फिर वह किसी का नहीं रहता। धन ही उसके लिए सबकुछ होता है। वह धन के नशे में पागल हो जाता है, बेभान हो जाता है।

आज आप लोगों के घरों में बुजुर्गों की स्थिति ऐसी हो गई है कि जो कमावे वह खावे और दूसरा मांगे तो मार खावे। ऐसी स्थिति हो जाने के कारण ही इस देश में वृद्धाश्रम या विधवाश्रम की बातें चलने लगी हैं। ऐसे आश्रम स्थापित हों, यह कोई गौरव की बात नहीं है; अपितु उन बुजुर्गों और विधवाओं के परिवारों के लिए तथा समाज और संस्कृति के लिए शर्म की बात है।

आपसे मेरा पहला प्रश्न यह है कि आपका राग आप के माता-पिता पर अधिक है या पत्नी-बच्चों पर अधिक है? भगवान पर राग होने का दावा करने वाले को मेरा यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। योग की भूमिका में माता-पिता की पूजा लिखी है, पत्नी-बच्चों की नहीं। मुझे तो ऐसा महसूस होता है कि आज के लोगों को कम से कम कीमत की कोई चीज लगती हो तो वह उसके मां-बाप हैं। मां-बाप भी अपने पुत्रों को पैसा देकर मूर्खों की गिनती में आते हैं। वे मां-बाप को मूर्ख मानते हैं और मां-बाप मोहान्ध हैं, अतः उन्हें पैसा देते ही रहते हैं और उनकी तृष्णा को बढाते हैं, आग में घी डालते हैं। - आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

सुवर्ण पात्र में मदिरा पान


पूर्व के कई जन्मों के असीम पुण्योदय से यह मानव जीवन मिला, आर्य देश, आर्य संस्कृति और अच्छा कुल मिला, धर्म गुरुओं का सान्निध्य और धर्म श्रवण का लाभ मिला, वैभव मिला। लेकिन अब इस जीवन में हम क्या कर रहे हैं? आप पूर्व संचित पुण्य से जो कुछ मिला उसे भोग कर नष्ट कर रहे हो ! पुराना पुण्य का खाता बन्द कर रहे हो और भौतिक संसारी सुख में बेभान होकर नया पाप का खाता चालू कर रहे हो तो आगे क्या बनोगे- कीडे मकोडे, सांप-बिच्छू? अरे कुछ तो समझो ! बहुत श्रम, त्याग, तपस्या से अर्जित पुरानी पुण्य की पूँजी खा-पीकर मौज-शौक में उडा दोगे, फिर क्या करोगे?

आज हमारा बहुत बडा पुण्योदय है कि हमें धर्म सामग्री से सम्पन्न मनुष्य भव मिला है, जो मनुष्य भव दुर्लभ में दुर्लभ माना जाता है, वह किसलिए, क्या आपको पता है? सुख की दृष्टि से? नहीं....। यदि सुख की दृष्टि से यहां विचार करना हो तो देवलोक में बहुत ऋद्धियां है। परन्तु शास्त्रकारों ने देव जन्म को दुर्लभ न कहकर मनुष्य जन्म को ही दुर्लभ कहा है। क्योंकि मनुष्य जन्म से ही मोक्ष में जाया जा सकता है और भव चौरासी में बार-बार के जन्म-मरण को रोका जा सकता है। अक्षय सुख और आनंद को प्राप्त किया जा सकता है। इस मोक्ष प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र रूप रत्नत्रयी की आराधना करनी होती है। इस रत्नत्रयी की आराधना के लिए साधु धर्म प्राप्त करना पडता है। क्योंकि साधु धर्म प्राप्त किए बिना अपवाद को छोड़ दें तो कोई भी मुक्ति में नहीं जा सकता।

आर्य देश, आर्य संस्कृति, वीतरागी देव, केवलज्ञानी अरिहंत भगवंतों द्वारा बताया गया धर्म श्रवण कराने वाले गुरु के संयोग वाले जैन कुल में मिला यह मनुष्य जन्म स्वर्णपात्र के समान है, जिसमें रत्नत्रयी का सेवन कर अक्षय सुख व आनंद प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन हम कर क्या रहे हैं? रत्नत्रयी का सेवन या भोग-कर्म का सेवन?

सभी पात्रों में स्वर्णपात्र उत्तमोत्तम कोटि का गिना जाता है और सभी पेय पदार्थों में मदिरा, अधम से अधम गिनी जाती है। उत्तम कोटि के आर्यों में भी मदिरापान महापाप गिना जाता था। अधिकांशतः कोई भी आर्य मदिरापान करता नहीं और करता हो तो लज्जित हुए बिना नहीं रहता। मदिरापान को जो महापाप गिनता हो और मदिरापान करता हो तो भी उसे जो अत्यंत लज्जाजनक समझता हो, वह व्यक्ति सुरापान के लिए स्वर्णपात्र जैसे उत्तम कोटि के पात्र का उपयोग कैसे करेगा? अधम वस्तु को उत्तम पात्र में कैसे भरा जाए? रत्नत्रयी के भाजन रूप मनुष्य जन्म में भोग-कर्म, स्वर्ण के पात्र में मदिरा को स्थान देने समान है।

-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2012

शासन और रामदेवजी की विवेकशून्यता का परिणाम


रामलीला मैदान पर रामदेवजी द्वारा किए गए आंदोलन और उस पर की गई पुलिसिया कार्यवाही पर माननीय उच्चतम न्यायालय का निर्णय स्वागत योग्य है, हालांकि रामदेवजी पर डाली गई 25 फीसदी जिम्मेदारी कम है, क्योंकि जो कुछ हुआ उसके लिए शासन और रामदेवजी दोनों बराबर के जिम्मेदार हैं और यह दोनों की विवेक शून्यता का परिणाम है। सरकार भयभीत थी और रामदेवजी पूरी तरह अहंकार के आगोश में थे।

भ्रष्टाचार के खिलाफ पहली बार इतना बडा आंदोलन अन्ना हजारे और रामदेवजी आदि चला रहे थे, पूरा मीडिया इस मुद्दे पर उनके साथ खडा था तो देश की जनता लामबंद होनी ही थी, क्योंकि आज हर कोई इस महामारी से पीड़ित है। आंदोलन को जैसे-जैसे समर्थन मिलता दिख रहा था, सरकार की धडकन तेज हो रही थी, इसीलिए रामदेवजी जब दिल्ली पहुंचे तो उनसे वार्ता के लिए चार-चार काबीना मंत्री हवाई अड्डे पर पहुंच गए। ऐसा देश के इतिहास में पहली बार हुआ। इससे सरकार की घबराहट साफ नजर आती है, लेकिन इस घबराहट से रामदेवजी का अहंकार बढ गया।

वे रामलीला मैदान पहुंचे तो वहां जिस प्रकार मीडिया का जमावडा रामदेवजी को दिखाई दिया, लाईव टेलीकास्ट से देशभर में जिस प्रकार जनसैलाब उमडने की खबरें प्रसारित होती रही, उससे सरकार की घबराहट और बेचैनी बढती गई, वहीं रामदेवजी का अहंकार भी बढता गया, उस समय की उनकी बॉडी लेंग्वेज, हावभाव और घोषणाएं इसका स्पष्ट प्रमाण हैं।

रामदेवजी मंच से लगातार यह घोषणा करते रहे कि हमारी 99 फीसदी मांगें सरकार ने मान ली है और सिर्फ एक प्रतिशत पर बात अटकी है, सरकार से लिखित पत्र आने वाला है, बहुत जल्द ही आपको खुशखबरी सुनाने वाला हूं। सरकार भी इसके लिए तैयार दिखाई दे रही थी। आंदोलनों में हमेशा ऐसा होता है और ऐसी ही रणनीति होती है कि यदि 99 फीसदी मांगें मानी जा रही है तो लिखित समझौता करके एक बार आंदोलन स्थगित कर दो और शेष बचे एक फीसदी के लिए समय सीमा दे दो। इससे आंदोलन की ताकत भी बढती है और जनता में आंदोलन के प्रति विश्वास भी प्रगाढ होता है। फिर एक प्रतिशत के लिए लडाई आसान हो जाती।

लेकिन, रामदेवजी मीडिया की चमक और उमडते जनसैलाब के कारण अधिक अहंकारी हो गए। दूसरी ओर शासन अधिक भयाक्रांत था। अहंकार में विवेक नष्ट हो जाता है, वहीं भयभीत व्यक्ति अधिक हिंसक हो जाता है। भयग्रस्त व्यक्ति धैर्य खो देता है और धैर्य खोते ही उसका विवेक नष्ट हो जाता है, वह हिंसक हो जाता है। शासन और रामदेवजी दोनों का विवेक नष्ट हुआ, उसी की सजा भुगती भोली-भावुक-भ्रष्टाचार पीड़ित जनता ने।